एक ऐसा क्रांतिकारी जिसे दुबारा मारा गया! Skip to main content

एक ऐसा क्रांतिकारी जिसे दुबारा मारा गया!

कहते है कि कोई इंसान एक बार अगर मर जाए, तो उसे दुबारा नहीं मरा जा सकता. परन्तु आज हम जिस क्रांतिकारी के बारे में बात करने वाले है, उसे दुबारा मारा गया और हर एक एक कोशिश की गई, जिस से वह जनता तक नहीं पहुँच पाए. यहाँ तक कि उसकी लिखी हुई किताबों तक को दबाने की कोशिश की गई. उस क्रांतिकारी का कहना था कि "इंसान का शरीर कैद किया जा सकता है, उसके विचार नहीं. इंसान के शरीर को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं." परंतु इस क्रांतिकारी के विचार को भी मारने का हर संभव कोशिश किया गया और ऐसा कोशिश कि न ही उसके बारे में ज्यादा लिखा गया और न ही ज्यादा पढ़ाया गया. बस उसे एक गुमनाम बनाने के लिए पूरी तरह से कमर कसा जा चूका था. परंतु यह उस क्रांतिकारी की प्रसिद्धि ही है, जो इतना सब कुछ करने के बाद भी वह आज युवाओं के बीच प्रसिद्ध है और हर एक युवा के दिलों पर राज करता है. उसका नाम आते ही सभी के सर उसके सम्मान में झुक जाते है. मैं बात कर रहा हूँ, एक 5 फुट 10 इंच लम्बे और बहुत ही खूबसूरत नौजवान, जिसे लड़कियों से बचाते बचाते उनके साथी परेशान हो जाते थे, सरदार भगत सिंह संधू के बारे में. आइए उनके बारे में बात करते है, परंतु एक अलग नजरिए से.

प्रारंभिक जीवन

भगत सिंह के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानने से पहले थोड़ा सा उनके परिवार के बारे में बात करेंगे. भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह संधू और माता का नाम विद्यावती देवी है. सरदार किशन सिंह गाँधी जी बहुत बड़े भक्त थे. इनके चाचा अजित सिंह और श्‍वान सिंह दोनों क्रांतिकारी थे और यह दोनों हो करतार सिंह सराभा के साथ गदर पार्टी में थे. भगत सिंह के परिवार के बारे में बात करना इसी वजह से जरुरी था, क्योंकि जिसके घर के बड़े ही क्रांति के राह पर चल रहे हो, जिसे देशभक्ति ही विरासत में मिला हो, वह भला खुद को क्रांति की राह से कैसे अलग रख सकता था? सरदार किशन सिंह संधू के घर 28 सितम्बर 1907 के दिन जन्म हुआ सरदार भगत सिंह संधू का. कहते है कि पुत्र के लक्षण पालने में ही दिखने लगते है. वैसे ही भगत सिंह के बचपन में उनके लक्षण दिख गए थे.
एक बार की बात है. भगत सिंह अपने खेतों में कुछ कर रहे थे. उसके पिता ने उन्हें देखा, परंतु उन्हें समझ में नहीं आया. उन्होंने उत्सुकता से पूछ लिया, "भगत, क्या कर रहा है?"
भगत सिंह ने बड़ी मासूमियत से कहा, "बंदूक बो रहा हूँ."
उनके पिता ने आश्चर्य से वापस से पूछा, "अच्छा! वो क्यों?"
भगत सिंह जवाब दिया, "अंग्रेजों से लड़ने के लिए."

अहिंसा या क्रांति?
जब भगत सिंह केवल 8 वर्ष 1 महीने और 19 दिन के थे, तभी सरदार करतार सिंह सराभा को फाँसी की सजा दी गई थी. तब करतार सिंह सराभा की उम्र सिर्फ 19 वर्ष 5 महीने 23 दिन ही था. भगत सिंह उनसे बहुत प्रभावित हुए, परन्तु उस समय गाँधी के अहिंसा का प्रभाव भी देश के लोगों पर बढ़ चढ़ कर बोल रहा था. भगत सिंह, अहिंसा की राह या क्रांति की राह, इस सवाल में उलझ गए थे. इस सवाल का जवाब शायद 8 वर्ष के बच्चे के लिए ढूँढना मुश्किल ही रहा होगा. परंतु भगत सिंह अंग्रेजों द्वारा अपने आसपास हो रहे जुल्म को देख रहे थे. छोटी सी उम्र में भी उन्हें अंग्रेजों से घृणा था. इसका कारण था, उनके परिवार का माहौल. रही सही कसार उस समय निकल गई, जब 13 अप्रैल 1919 बैसाखी के दिन जनरल डायर द्वारा जालियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर गोली चलवा कर मौत के घाट उतरवा दिया था. जालियांवाला बाग की मिट्टी उस कत्लेआम में मरे लोगों के खून से लाल हो गई थी. भगत सिंह की उस वक्त उम्र केवल 11 वर्ष 6 महीने 16 दिन की थी. भगत सिंह उस बाग में गए और उस जगह की कुछ देर ध्यान से देखा. फिर वहाँ की मिट्टी एक बोतल में भर लिया, जिसे वह हमेशा अपने सिरहाने रह कर सोते थे और उन्हें वही जलियाँवाला बाग ही सपने में दिखता और वह उठ जाते थे. तभी भगत सिंह ने अपने मन में चल रहे अहिंसा और क्रांति की लड़ाई को सुलझा लिया. वह इस नतीजे पर पहुँचे कि देश की आजादी जरुरी है, अहिंसा के रास्ते पर चल कर मिले या क्रांति के रास्ते पर मिले. यहाँ विचारों की लड़ाई नहीं है. देश के आजादी की लड़ाई है और आजादी ही जरुरी है. परंतु उनका गाँधी में भी अटूट श्रद्धा था. वह श्रद्धा टुटा असहयोग आंदोलन के समय.

अहिंसा से मोह भंग
गाँधी ने मुसलमानों द्वारा चलाए जा रहे खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने के लिए 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन को चलाया और सभी हिन्दुओं को इस आंदोलन से जुड़ कर खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने को कहा. हिन्दू ज्यादा से ज्यादा खिलाफत आंदोलन का समर्थन करें, इसके लिए गाँधी ने खिलाफत आंदोलन को "मुसलमानों की गाय" कहा. साथ ही साथ यह भी कहा कि "कोई भारतीय अंग्रेजों की नौकरी न करें. सभी अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दें. बच्चे स्कूल की पढाई छोड़ दें. विदेशी कपड़े न पहने. अंग्रेज भारतीयों की मदद के बिना भारत देश पर राज नहीं कर सकते. अगर ऐसा रहा तो 1 वर्ष में हमें आजादी मिल जाएगी." भारत की आजादी के लिए सभी लोगों ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दिया. बच्चे अपने किताब नाली में डाल कर इस आंदोलन से जुड़ गए. अपने छोटे छोटे हाथों से पर्चे बाँटते और विदेशी कपड़ों की होली जलाते थे. परंतु गाँधी ने उत्तरप्रदेश के चौरा चौरी में हुए कांड की वजह से अपना आंदोलन वापस ले लिया था. दरअसल चौरा चौरी में लोगों की एक जुलुस पुलिस चौकी के सामने शांति पूर्वक प्रदर्शन कर रही थी, उसी समय पुलिस ने उस जुलुस पर गोली चला दिया और इस गोलीबारी में 20 लोग मारे गए. इस बात से गुस्साई भीड़ ने 22 पुलिस वालों को पुलिस चौकी में बंद कर के पुलिस चौकी को आग लगा दिया और वो 22 पुलिस वाले मारे गए. इस घटना से आहत होकर गाँधी ने अपना असहयोग आंदोलन यह कहते हुए वापस ले लिया कि "देश अभी आजादी के लिए तैयार नहीं है." 1921 मोपला नरसंहार पर चुप रहने वाले गाँधी, 22 पुलिस वालों की मौत से आहत होकर असहयोग आंदोलन वापस ले लिया. यह देश की जनता के लिए एक तरह से धोखे से कम नहीं था. क्योंकि हजारों लोग बेरोजगार हो गए. बच्चों के लिए सरकारी स्कूल के दरवाजें बंद हो चुके थे. यह देश की जनता को मझधार में छोड़ने जैसा था. बस यही घटना है कि भगत सिंह का अहिंसा और गाँधी से मोह भंग हो चूका था और उनके मन में क्रांति कि भावना दृढ हो गई.

नौजवान भारत सभा का गठन और घर छोड़ कर भागना
1923 में जब यह लगभग 15 वर्ष के थे, तब भगत सिंह ने नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया. इस कॉलेज में भगत सिंह ज्यादातर अपना समय पुस्तकालय में बिताते थे. वो उस समय हुए क्रांति के विषयों में पढ़ते थे. बहुत पढ़ा और तभी से आजाद भारत की सबसे अलग तस्वीर उनके जहन में थी. यही पर इनकी मुलाकात सुखदेव थापर, भगवती चरण वोहरा, जयदेव से मिले. भगत सिंह इटली के क्रांति और गिउसेप्पे मैजिनी (Giuseppe Mazzini) से बहुत प्रभावित थे. उसी तर्ज पर भगवती चरण वोहरा ने मार्च 1926 में नौजवान भारत सभा बनाया और खुद उसका नेतृत्व नहीं किया. बल्कि भगत सिंह को उसका महासचिव बनाया. भगत सिंह ने सुखदेव के साथ मिल कर कुछ अंग्रेजों को अँधेरे में पीटा था. इसी पूरी घटना को नेशनल कॉलेज के प्रोफेसर विद्यालंकार ने देख लिया. तब उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और भगवती चरण वोहरा को बुलाया और उनका मार्गदर्शन किया. तब उन नौजवानों का अहिंसा के प्रति घृणा देख कर प्रो. विद्यालंकार जी इन सभी को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़ने को प्रेरित किया. तब जाकर भगत सिंह इस संगठन से जुड़े थे. करीब 1927 में भगत सिंह के घर वालों ने भगत सिंह की शादी करवाने की कोशिश किया. तब भगत सिंह शादी से बचने के लिए भाग कर कानपूर चले गए थे.

यहाँ तक तो हमने भगत सिंह के बारे में सीधे तौर पर लगभग वही सभी बातों को बताया, जो लगभग हर जगह पढ़ने को मिल जायेगा. परंतु अब इसके आगे मैं भगत सिंह के अलग अलग गुणों के बारे में बताऊंगा और भगत सिंह ने इसका कहाँ कहाँ पर भरपूर मात्रा में इसका उपयोग किया, यह भी बताऊंगा. जिस से आप भगत सिंह के जीवन को तारीखों से नहीं, बल्कि उनके अलग अलग गुणों से याद करें.

प्रखर वक्ता और लेखक
भगत सिंह की कई गुणों में से एक यह भी था कि वो बहुत ही ज्यादा प्रखर वक्ता और लेखक थे. जब काकोरी कांड के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सभी क्रन्तिकारी या तो जेल में थे या उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया था, तब यह पार्टी लगभग खत्म हो गई थी. जिस से चंद्रशेखर आजाद जी के साथ साथ अन्य क्रांतिकारी भी मायूस हो गए थे. तब भगत सिंह ने ही उन सभी से कहा कि "जब तक हम जिन्दा है, पार्टी खत्म कैसे हो सकती है? इंसान के शरीर को कैद किया जा सकता है, उसके विचारों को नहीं. शरीर मर सकता है, परन्तु विचार अमर है. हम उनके विचारों को लोगों तक ले जायेंगे." इतना सुनाने के बाद वहाँ के सभी क्रांतिकारियों में एक नई ऊर्जा संचार हुआ और वह सभी देश सेवा में जुड़ गए.
भगत सिंह काकोरी कांड में फाँसी पर चढ़ने वाले या जेल में जाने वाले सभी क्रांतिकारियों पर किर्ति नामक एक अखबार में लेख लिखते थे और सभी के बारे में विस्तृत वर्णन किया करते थे. जिस से लोगों को इन क्रांतिकारियों के बारे में और उनके विचार के बारे में पता चल सके. वरना अंग्रेजों ने और कांग्रेस के नेता तो उन्हें आतकवादी ही कहा करते थे. भगत सिंह कौमी एकता पर भी लेख लिखा करते थे और हमेशा खुद का एक उपनाम रखते थे. जैसे बलवंत, रणजीत और विद्रोही. एक बार अंग्रेजों को इनके बारे में पता चला, तो भगत सिंह को तुरंत गिरफ्तार करने के हुक्म दिया. परंतु उनके खिलाफ कोई केस था नहीं, तो 1927 में दशहरे के मेले में खुद बम ब्लास्ट कर एक झूठा केस बनाया. भगत सिंह को उसमे फँसा कर,  20 वर्ष की उम्र में, गिरफ्तार कर लिया. भगत सिंह पर उस समय 60,000 रुपये की रकम रखा था उनके जमानत के लिए. अंग्रेज सरकार ने पूरी तैयारी कर रखा था भगत सिंह को जेल में ही रखने का. परंतु भगत सिंह पिता किशन सिंह ने 60,000 की जमानत देकर भगत सिंह को छुड़ा कर ले आए और उनके लिए एक डेरी खोल दिया. भगत सिंह कई दिनों तक उसी डेरी में काम करते रहे.
इसके अलावा भगत सिंह ने "मैं नास्तिक क्यों बना?" इस पर भी एक बहुत बड़ा लेख लिखा है. साथ ही साथ भगत सिंह कविताएँ और शायरियाँ भी लिखते थे. बिस्मिल जी की लिखी कविता "मेरा रंग दे बसंती चोला" में भगत सिंह ने भी अपना योगदान दिया था. भगत सिंह की लिखी कई कविताएँ और शायरियाँ उस समय काफी प्रचलित हुई थी.
रसायन शास्त्र के विद्वान जतीन्द्रनाथ दास, जो बम बनाना भी जानते थे, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ने के लिए इस वजह से मना कर चुके थे, क्योंकि उन्होंने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया था. इस से चंद्रशेखर आजाद बहुत मायूस हुए थे. उन्होंने भगत से कहा कि वो एक बार जतीन दा को समझा कर देखे. शायद जतीन दा मान जाए. भगत सिंह खुद कभी इस दोराहे पर खड़े थे और उन्होंने खुद को भी कभी यही समझाया था. इसी वजह से भगत सिंह को जतीन दा को यह समझाने में ज्यादा समय नहीं लगा कि हिंसा क्या है? अहिंसा क्या है? और क्रांति क्या है? इसके बाद जतीन दा HSRA के साथ जुड़ गए थे. ये वही थे, जिनकी मौत के बाद से ही सुभाष चंद्र बोस भी अहिंसा के मार्ग से कटे कटे रहने लगे थे.

विश्व क्रांति और इतिहास का बहुत अच्छा ज्ञान
19वी सदी के दौर में लगभग पुरे विश्व में ही क्रांतियों का ही दौर चल रहा था. ऐसे में भगत इन क्रांति और क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ा करते थे और यह समझने की कोशिश किया करते थे कि कोई क्रांति कामयाब कैसे हो सकती है? यही बात उन्होंने बिस्मिल साहब को भी समझाया था कि "क्रांति वही कामयाब होती है, जो आवाम में क्रांति को जगा सके. जनता को एक जुट कर सके लड़ने के लिए. वरना खून बहाना कोई बड़ी बात नहीं है. फिर चाहे वह अपना हो चाहे पराया. बड़ी बात यह है कि जिस्म से टपका हर के बून्द खून आवाम में उबाल ला सकता है या नहीं." इनकी इसी बात से प्रभावित होकर बिस्मिल जी ने भगत सिंह को HRA पार्टी में शामिल किया था और इतिहास की अच्छी जानकारी होने की वजह से ही सुखदेव ने भगत सिंह को असेम्बली में बम फेकने के लिए प्रेरित किया था. क्योंकि पूरी HSRA में भगत सिंह जैसा इतिहास का जानकर कोई नहीं था. तभी भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त को अपने साथ जाने के लिए चुना. क्योंकि बटुकेश्वर दत्त अंग्रेजी अच्छी बोल लेता था और अपने बाद पार्टी की कमान सुखदेव के हाथों में देने को कहा था. असेम्बली में बम धमाका करने की यह प्रेरणा उनके दिमाग में फ्रांसीसी क्रांतिकारी अगस्त वैलाँ (Auguste Vaillant) से मिली थी और क्रांति को कामयाब बनाने के लिए आवाम से जुड़ने की प्रेरणा रुसी क्रांति से मिली थी.

सख्त फैसले लेने की खूबी
भगत सिंह को आप उनके द्वारा लिए गए सख्त फैसलों की लिए भी याद कर सकते है. साइमन कमिसन जब भारत आया था, तब उसके विरोध में लाला लाजपत राय ने एक रैली का आयोजन किया था. उस रैली में स्कॉट नाम के एक अंग्रेजी अफसर ने लाला जी को तब तक लाठियों से पीटा, जब तक लाला की मृत्य नहीं हो गई. लाला जी की मृत्यु पुरे देश के मुँह पर एक तमाचा था. कांग्रेस पार्टी इस घटना की कड़ी निंदा कर रही थी (राजनैतिक पार्टियाँ आज भी केवल निंदा ही करती है). ऐसे में तब भगत सिंह ने स्कॉट की हत्या कर लाला जी के मृत्य का बदला लेने का सोचा. यहाँ पर भी मकसद यही था कि अंग्रेजी हुकूमत को एक सन्देश देना, "अपनी बर्बरता से बाज आओ." हालाँकि इसमें स्कॉट की जगह सॉण्डर्स मारा गया था.
देश भर में जब मजदुर हड़ताल पर हड़ताल कर रहे थे, तब ऐसा कोई नहीं था जो मजदूरों के दुःख तकलीफ को समझे और उनके लिए आवाज उठाए. ऐसे में अंग्रेजी हुकूमत पब्लिक सेफ्टी बिल ला रही थी, जिस से इस मजदूरों से उनका विरोध करने का अधिकार भी छीन लेना चाहती थी. इसी बिल को असेम्बली में पास होने देने से रोकने के लिए भगत सिंह ने ही असेम्बली में बम फोड़ने का सुझाव दिया था. उनका यह सुझाव फ्रांसीसी क्रांतिकारी अगस्त वैलाँ से प्रेरित था, जिन्होंने वह कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है. उन्हें यह बात अच्छे से पता था कि असेम्बली में बम फोड़ने का नतीजा उम्र कैद या फाँसी ही होगा.
जेल में जब भगत सिंह ने देख कि गोरे कैदियों को हर तरह की सुविधा जैसे साफ कपड़े, अच्छा खाना और पढ़ने के लिए अखबार व किताबे दी जा रही हैं, जबकि हिंदुस्तानी कैदियों के साथ जानवरों जैसा बर्ताव हो रहा है तो भगत सिंह ने खाना खाने से मना कर दिया था. इस बात को भगत सिंह अच्छे से जानते थे कि वो गाँधी नहीं है कि कोई उनके भूख हड़ताल से डर जाएगा. परन्तु भगत सिंह ने फिर भी यह भूख हड़ताल रखा. भगत सिंह का यह भूख हड़ताल बहुत लम्बा चला था, जिसके बारे में अलग अलग जानकारियाँ दी जाती है. कही इसे 63 दिन का बताया जाता है, तो कही इसे 116 दिन का. परंतु कहने का तात्पर्य यह है कि उनका भूख हड़ताल काफी लम्बा चला था और अंत में अंग्रेजों को झुकना पड़ा था इनकी भूख हड़ताल के सामने.

दूरदर्शी सोच
भगत सिंह के बारे में यह बात तो जोर देकर के कहना पड़ेगा कि उनकी सोच बड़ी दूरदर्शी थी. उन्होंने कांग्रेस के बारे पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस इतने सालों से टिकी हुई है, क्योंकि वह सिर्फ टिकी रहना चाहती है. वह करना कुछ नहीं चाहती है. साथ ही साथ गाँधी ने जब डोमिनियन स्टेटस माँगा था अंग्रेजों से, तभी भगत सिंह ने कांग्रेस के तरीके को देख कर के कह दिया था कि "कांग्रेस जिस तरह से आजादी चाहती है, अगर उस तरह से आजादी मिल गई, तो एक दिन ऐसा आएगा कि इस देश में धर्म और मजहब के नाम ऐसी आग लगेगी, जिसे बुझाते बुझाते आने वाले पीढ़ियों की कमर टूट जाएगी. क्योंकि कांग्रेस सिर्फ आजादी चाह रही है. उसके बाद देश को क्या चाहिए क्या नहीं, इस बारे में नहीं सोच रही. अगर कांग्रेस के तरीके से आजादी मिल जाएगी, तो गोरे साहब चले जाएंगे, उसकी जगह भूरे साहब आकर बैठ जाएंगे. इस से आम जनता के जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. अमीर और अमीर होता जाएगा और गरीब और गरीब."
भगत सिंह की यह बात सच होने में ज्यादा समय नहीं लगा. द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद से भारत देश की आजादी और बंटवारे के समय तक के हुए नरसंहार इसी बात को दर्शाते है. फिर चाहे वह डायरेक्ट एक्शन डे हो, नओखलि का नरसंहार या फिर बँटवारे के समय हुआ मार काट. भगत सिंह ने यह बात लगभग आज से 90 वर्ष पहले कहा था और यह आज के भारत पर बहुत सटीक बैठता है.

"नास्तिक" भगत सिंह
यह बात सभी जानत है कि भगत सिंह नास्तिक बन गए थे और इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिला था, जब भगत सिंह ने सॉण्डर्स कि हत्या कर दिया था. तब वहाँ से भागने के लिए भगत सिंह ने अपने केश काट लिए थे और शूट बूट पहने के बाद सर पर हैट पहन किसी अंग्रेजी बाबू की तरह वहाँ से निकल गए थे. एक सच्चा सिक्ख अपना सर कटवा लेगा, परंतु अपने केश नहीं कटेगा. भगत सिंह ने अपने धर्म से बढ़ कर अपने देश को माना. शायद यह भी एक बड़ा कारण था उनके नास्तिक बनाने का. जब भगत सिंह के दोस्त उनके नास्तिक बन जाने को उनका अहंकार कहने लगे, तब भगत सिंह ने मैंने नास्तिक क्यों बना नाम से एक लेख लिखा, जिसमें भगत सिंह ने अपना पक्ष रखा.
कई भगत सिंह के नाम पर एजेंडा चलाने वाले लोग और पार्टियाँ इस बात को जरूर बताएँगी कि भगत सिंह नास्तिक थे. परंतु वो आप से यह छुपा लेंगे कि नास्तिक होने के बाद भी भगत सिंह अपनी जेब में सरदार करतार सिंह सराभा की तस्वीर, श्रीमद्भगवतगीता का एक गुटका और स्वामीविवेकानंद की जीवनी रखते थे. यानि वो नास्तिक तो थे, परंतु उन्हें श्रीमद्भगवतगीता से कभी भी कोई परहेज नहीं था. वो कही न कही ईश्वर के अस्तित्व को भी मानते थे, उस से कभी इंकार नहीं किया.

भगत सिंह का व्यक्तित्व
गाँधी के बारे में आपको आसानी से हर एक किताब मिल जाएगी. गाँधी के आलोचना से लेकर गाँधी के बारे में उड़ रही अफवाहों तक. परंतु भगत सिंह के बारे में आपको ऐसी कोई किताब नहीं मिलेगा. भगत सिंह हमारे दिलों में जिन्दा तो है, परन्तु वही जो हमारे दमाग में डाला गया है. भगत सिंह 1907 में जन्मे, असहयोग आंदोलन में भाग लिया, गाँधी से दूर हुए, नौजवान भारत सभा बनाया, सॉण्डर्स को मारा, असेम्बली में बम फोड़ा और उन्हें फाँसी हो गई. परंतु भगत सिंह इस से कही ज्यादा विशाल है. इतने की कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ा भगत सिंह को मारने का.
खैर. आज हम बात करेंगे कि भगत सिंह का व्यक्तित्व कैसा था? 
  • भगत सिंह 5 फुट 10 इंच के खूबसूरत नौजवान थे. यह एक ऐतिहासिक बयान है राजगुरु का कि "भगत सिंह को लड़कियों से बचाते बचाते हमारी हालत खराब हो जाती थी."
  • भगत सिंह को पढ़ने का बहुत शौख था. ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके पास कोई किताब नहीं मिला हो. यहाँ तक कि फाँसी से पहले भी भगत सिंह रुसी क्रांति के जनक लेलिन के बारे में पढ़ रहे थे.
  • भगत सिंह बहुत ज्यादा हंसी मजाक करने वाले लड़के थे. भगत सिंह चार्ली चैपलिन के बहुत बड़े प्रसंसक थे. वह एक समय के खाने के पैसे बचा कर के चार्ली चैपलिन का शो देखने जाते थे और चंद्रशेखर आजाद को चार्ली चैपलिन से चिढ़ था. उन्हें शायद अपने देश और अपने माउसर को छोड़ किसी से प्रेम नहीं था.
  • भगत सिंह को मिठाई बहुत पसंद थी. खास कर के रसगुल्ले. जब वो कोर्ट रूम में भी रहते तब उनका ध्यान रसगुल्लों पर ही रहता था.
  • भगत सिंह को अपने जीवन से कभी प्रेम था ही नहीं. उनके पिता किशन सिंह ने जब भगत सिंह की तरफ से क्षमा प्रार्थना की अर्जी दिया, तब भगत सिंह अपने पिता से भी लड़ गए थे यह कहते हुए कि उनके मौत पर केवल उनका हक है.
  • भगत सिंह को प्रेम में बहुत ही ज्यादा विश्वास था. भगत सिंह प्रेम करना चाहते और अपनी पूरी जिंदगी अपनी महबूबा के साथ ही बिताना चाहते थे. परंतु परतंत्र भारत में नहीं. उसके लिए अगर कोई दूसरा जन्म हुआ तो.
हो सकता है यह सब पढ़ कर कोई मुझे गालियाँ दे कि भगत सिंह के बारे में ऐसा कैसे लिख दिया? क्योंकि हमारी आदत है किसी को तुरंत भगवन बना देने की. ताकि हमे कभी कुछ नहीं करना पड़े. बस उस बनाये हुए भगवन के सामने हाथ पसार कर खड़े हो जाए कि वो अवतार लेकर आए. पर खुद कुछ नहीं करेंगे. शायद इसी वजह से लक्ष्मण जी ने कहा था कि 

"नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। 
दैव दैव आलसी पुकारा॥

अर्थात:- हे प्रभु (राम)! आप किसी देव पर व्यर्थ ही भरोषा कर रहे है. अपने मन में क्रोध जगाइए और इस सागर को सूखा दीजिये. आलसी मन का खुद को तसल्ली देने का यह एक उपाय है. आलसी लोग ही देव देव पुकारा करते है.

मरने की चाह परंतु अपने शर्तों पर
भारत की आजादी के लड़ाई के समय का वह दौर ऐसा था, जब सभी क्रांतिकारी देश के लिए सबसे पहले मरने के लिए उतावले रहते थे. फिर चाहे चंद्रशेखर आजाद हो, जिन्होंने वह कसम खाया था कि वह कभी जिन्दा पकड़े नहीं जाएंगे. इसके लिए वह एक गोली खुद के लिए अलग से रखते थे. फिर चाहे राजगुरु हो. राजगुरु एक मस्तमौला इंसान से जिसने शर्त लगा रखा था भगत सिंह से कि वह उनसे पहले मरेगा. वही हाल दूसरे क्रांतिकारियों का था. परंतु भगत सिंह का मरने के बारे में सोच उन सब से थोड़ा लगा था. भगत सिंह मरना चाहते थे, परंतु ऐसे कि उनके मरने के बाद उनकी जगह लेने के लिए 1000 और भगत सिंह खड़ा हो जाए. वो लोग आम जनता के बीच आतंकवादी के नाम से ही प्रसिद्ध थे. भगत सिंह ने जनता तक खुद अपने पार्टी की आवाज को पहुंचाने का काम किया और मंच उसे तैयार कर के दिया खुद अंग्रेजी सरकार ने. असेम्बली में बम फोड़ने का और खुद आत्मसमर्पण करने के पीछे भगत सिंह का यही मकसद था. बम फोड़ने के बाद भगत सिंह को कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता, वहाँ भगत सिंह का बयान लिया जाता और उस बयान को लिखने के लिए देश विदेश का मीडिया वहाँ होगा. इस तरह से भगत सिंह में द्वारा उनके पार्टी के विचार लोगों तक पहुँच जाएँगे और ऐसा ही हुआ. जब भगत सिंह के विचार अखबारों में छप कर लोगों तक पहुंचे, तब लोग भगत सिंह की तरफ आकर्षित हुए. खास कर के नौजवान. उस समय भगत सिंह कई प्रसिद्धि गाँधी के समकक्ष पहुँच चुकी थी या यु कहे तो गाँधी से ज्यादा. लोग भगत सिंह के लिए मरने मारने पर उतारू हो चुके थे. जब भगत सिंह को लगा कि उन्हें जो करना था वो उन्होंने कर लिया है, अब ऐसे में अगर वो जिन्दा रहे तब उनका वह मुकाम नहीं रह जाएगा जो मारने के बाद होगा, तब जाकर के उन्होंने अपने मुकदमे में जिरह करना कम किया और भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई.

24 मार्च 1931 फाँसी का तय दिन
मुकदमे के दौरान भगत सिंह के बयानों का अखबारों के द्वारा आम जनता तक पहुंचने के बाद जनता भगत सिंह की तरफ ज्यादा आकर्षित हुई. इस से अंग्रेज सरकार डर गई थी. इसी वजह से भगत सिंह की एक तरह से कानूनी हत्या का षड्यंत्र रचा गया और भगत सिंह के कोर्ट रूम में आए बिना, खाली कोर्ट में भगत सिंह पर मुकदमा चलाया गया और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु बाद में फाँसी देने की खबर बताया गया. फाँसी की खबर सुन कर यह तीनों बहुत खुश हुए थे. इतना खुश हुए थे कि बाद में भगत सिंह का वजन बढ़ गया था. इसी खुशी में कि मुझे जो करना था, मैं कर चूका हूँ और वह सब करने के बाद अब मैं मारने जा रहा हूँ. भगत सिंह की फाँसी के लिए दिन तय किया गया था 24 मार्च 1931. परंतु भगत सिंह के ख्याति दक्षिण भारत तक पहुँच चुकी थी. पुरे भारत देश के लोग भगत सिंह के लिए मरने मारने को तत्पर थे. लाहौर जेल के बहार इतनी भीड़ थी कि मानों वह सब जेल की दिवार तोड़ को भगत सिंह को छुड़ा ले जाएँगे और ऐसा संभव भी था. इसी डर से अंग्रेजी सरकार ने एक दिन पहले यानि 23 मार्च 1931 को फाँसी देने का फैसला लिया. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीनों मेरा रंग दे बसंती चोला गाना गाते हुए, हँसते हँसते फाँसी पर चढ़ गए.
इसके बाद भी अंग्रेज यही नहीं रुके. उन सभी ने इन तीनों की लाशों को उतारा और जेल के पीछे की दिवार तोड़ कर वहाँ से बहार निकले. फिर दूर जाकर इनकी लाशों के टुकड़े टुकड़े कर के, उस पर तेल डाल कर आग लगा दिया. वही पास के गांव वालों ने देख लिया और उस तरफ दौड़े. तब डर कर अंग्रेज उन सभी की लाशों के टुकड़ो को वही की नदी में फेंक कर भाग गए.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की मृत्यु के लिए लोगों गाँधी को जिम्मेदार ठहराया. अब वो जिम्मेदार थे या नहीं, फिलहाल हम इस बहस में नहीं पड़ते. परंतु हाँ. इन तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी गाँधी के लिए वैचारिक हार जरूर रही. क्योंकि वह हिंसा के विरोधी थे.

इसके बाद शुरू हुआ भगत सिंह के नाम को अपने अपने अजेंडे के हिसाब से इस्तेमाल करने का. कोई भगत सिंह को कम्युनिस्ट बता कर उनके नाम का इस्तेमाल करता, तो कोई खुद को विद्यार्थी और उसके जैसा जानकर बता कर. कोई उन्हें सरदार बता कर उनका इस्तेमाल करना चाहता, तो कोई कुछ और. परंतु सच्चाई यही है कि कांग्रेस पार्टी ने भगत सिंह की दुबारा हत्या करने करने की भरपूर कोशिश किया. साथ ही साथ भगत सिंह के विचारों को भी. तभी आज तक हमारे पाठ्य पुस्तकों में भगत सिंह को एक आतकवादी बताया जाता है! राजनीति तो चलती ही रहेगी और राजनेता अपने फायदे के हिसाब से ही तथ्यों को तोड़ मरोड़ को सामने रखते रहेंगे. परंतु दोस्तों मेरा आप सभी से नम्र निवेदन है कि जितना हो सके भगत सिंह के बारे में पढ़े और और भगत सिंह को जीने का प्रयत्न करें. पढ़ कर आप सरदार भगत सिंह को नहीं समझ पाएंगे. क्योंकि भगत सिंह को फाँसी दी गई, तब उनकी उम्र केवल 23 वर्ष 5 महीने 25 दिन थी. इस दुनिया में बहुत महान महान क्रांतिकारी हुए है. परंतु इतने कम उम्र में कौन हुआ है? ऐसा दूसरा कौन है जो इतनी छोटी सी उम्र में इतनी बड़ी बड़ी बातें कह कर गया हो?

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जय हिन्द
वन्देमातरम

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भारत प्राचीन काल से ही अति समृद्ध देश रहा है. इसके साक्ष्य इतिहास में मिलते है. इसी वजह से भारत को सोने की चिड़ियाँ कहा जाता था. यह भारत की समृद्धि ही थी, जिसके वजह से विदेशी हमेशा से ही भारत की तरफ आकर्षित हुए है और भारत पर आक्रमण कर भारत को विजयी करने की कोशिश करते आए है. भारत पर आक्रमण करने वालों में सिकंदर (Alexander), हूण, तुर्क, मंगोल, मुगल, डच, पुर्तगाली, फ्रांसिसी और ब्रिटिश प्रमुख है. आज से हम भारत पर हुए सभी विदेशी आक्रमणों की चर्चा करेंगे. साथ ही साथ हम ऐसे महान राजा, महाराजा और वीरांगनाओं पर भी चर्चा करेंगे, जिन्होंने इन विदेशी आक्रांताओ के विरुद्ध या तो बहादुरी से युद्ध किया या फिर उन्हें पराजित कर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया. यह केवल एक इसी लेख में लिख पाना संभव नहीं है. वजह से इसके मैं कई भागों में लिखूँगा. इस कड़ी के पहले भाग में हम बात करेंगे सिकंदर की, जिसे यूरोपीय और कुछ हमारे इतिहासकार महान की उपाधि देते है. हम इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि क्या सिकंदर वास्तव में इतना महान था या फिर यूरोपीय इतिहासकारों ने सिकंदर के बारे में कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ा कर लिखा है? इसमें हम बह

भारत और वैदिक धर्म के रक्षक पुष्यमित्र शुंग

विदेशी आक्रांताओं के प्रथम कड़ी में हमने सिकंदर के भारत पर आक्रमण और राजा पुरु के साथ युद्ध के विषय में चर्चा किया था. विदेशी आक्रांताओं की द्वितीय कड़ी में हम ऐसे एक महान राजा के विषय में चर्चा करेंगे, जिसे एक षड़यंत्र कर इतिहास के पन्नों से मिटाने के लिए हर संभव प्रयत्न किया गया. कभी उसे बौद्ध धर्म का कट्टर विरोधी और बौद्ध भिक्षुकों का संहारक कहा गया, कभी उसे कट्टर वैदिक शासन को पुनः स्थापित करने वाला कहा गया. किन्तु वामपंथी इतिहासकारों ने कभी उस महान राजा को उचित का श्रेय दिया ही नहीं. क्योंकि वह एक ब्राम्हण राजा था. यही कारण है कि आज वह राजा, जिसे "भारत का रक्षक" का उपनाम दिया जाना चाहिए था, भारत के इतिहास के पन्नों से विलुप्त कर दिया गया है. हम बात कर रहे है पुष्यमित्र शुंग की, जिन्होंने भारत की रक्षा यवन (Indo Greek) आक्रमण से किया. सिकंदर (Alexander) के आक्रमण के बाद का भारत (मगध साम्राज्य) सिकंदर के भारत पर आक्रमण और राजा पुरु के साथ युद्ध के बाद आचार्य चाणक्य ने नंदवंश के अंतिम राजा धनानंद को राजगद्दी से पद्चुस्त कर चन्द्रगुप्त को मगध का राजा बनाया. यहीं से मगध में मौर्

1946: नओखलि नरसंहार

पिछले लेख में हमने डायरेक्ट एक्शन डे के बारे में देखा. डायरेक्ट एक्शन डे के दिन हुए नरसंहार की आग पुरे देश में फैल चुकी थी. सभी जगह से दंगों की और मारे काटे जाने की खबरें आ रही थी. इस डायरेक्ट एक्शन डे का परिणाम सामने चल कर बंगाल के नओखलि (आज बांग्लादेश में ) में देखने को मिला. यहाँ डायरेक्ट एक्शन डे के बाद से ही तनाव अत्याधिक बढ़ चूका था. 29 अगस्त, ईद-उल-फितर के दिन तनाव हिंसा में बदल गया. एक अफवाह फैल गई कि हिंदुओं ने हथियार जमा कर लिए हैं और वो आक्रमण करने वाले है. इसके बाद फेनी नदी में मछली पकड़ने गए हिंदू मछुआरों पर मुसलमानों ने घातक हथियारों से हमला कर दिया, जिसमें से एक की मौत हो गई और दो गंभीर रूप से घायल हो गए. चारुरिया के नौ हिंदू मछुआरों के एक दूसरे समूह पर घातक हथियारों से हमला किया गया. उनमें से सात को अस्पताल में भर्ती कराया गया. रामगंज थाने के अंतर्गत आने वाले बाबूपुर गाँव के एक कांग्रेसी के पुत्र देवी प्रसन्न गुहा की हत्या कर दी गई और उनके भाई और नौकर को बड़ी निर्दयता से मारा. उनके घर के सामने के कांग्रेस कार्यालय में आग लगा दिया. जमालपुर के पास मोनपुरा के चंद्र कुमार कर

1962: रेजांग ला का युद्ध

  1962 रेजांग ला का युद्ध भारतीय सेना के 13वी कुमाऊँ रेजिमेंट के चार्ली कंपनी के शौर्य, वीरता और बलिदान की गाथा है. एक मेजर शैतान सिंह भाटी और उनके साथ 120 जवान, 3000 (कही कही 5000 से 6000 भी बताया है. चीन कभी भी सही आंकड़े नहीं बताता) से ज्यादा चीनियों से सामने लड़े और ऐसे लड़े कि ना सिर्फ चीनियों को रोके रखा, बल्कि रेज़ांग ला में चीनियों को हरा कर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया और इसके बाद चीन ने एक तरफ़ा युद्धविराम की घोषणा कर दिया.

कश्मीर की चुड़ैल और लंगड़ी रानी "दिद्दा"

भारत वर्ष का इतिहास विश्व के प्राचीनतम इतिहासों में से एक है. कल तक जो भारत के इतिहास को केवल 3000 वर्ष प्राचीन ही मानते थे, वो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष मिलने के बाद अब इसे प्राचीनतम मानाने लगे है. पुरातत्व विभाग को अब उत्तर प्रदेश के सिनौली में मिले नए अवशेषों से यह सिद्ध होता है कि मोहनजोदड़ो के समान्तर में एक और सभ्यता भी उस समय अस्तित्व में था. यह सभ्यता योद्धाओं का था क्योंकि अवशेषों में ऐसे अवशेष मिले है, जो योद्धाओं के द्वारा ही उपयोग किया जाता था, जैसे तलवार रथ. इस खोज की एक विशेषता यह भी है कि यहाँ पर ऐसे भी अवशेष मिले है, जो नारी योद्धाओं के है. इस से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इस संस्कृति में नारी योद्धा भी रही होंगी. भारतीय संस्कृति और इतिहास में नारियों का विशेष स्थान रहा है. परन्तु हम आज झाँसी की रानी, रानी दुर्गावती और रानी अवन्तिबाई तक ही सिमित रह गए है. इनके अलावा और भी कई और महान योद्धा स्त्रियाँ हुई है भारत के इतिहास में. जैसे रानी अब्बक्का चौटा और कश्मीर की चुड़ैल रानी और लंगड़ी रानी के नाम से विख्यात रानी दिद्दा. आज हम कश्मीर की रानी दिद्दा के बारे म