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9 अगस्त 1925: काकोरी काण्ड

भारत देश की स्वतंत्र की लड़ाई में कई लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दिया, परंतु ऐसे लोगों के बारे में बहुत ही कम पढ़ाया जाता है. क्रांतिकारियों के बलिदान को तो जैसे हम और यह देश भुला ही बैठा है. अगर गलती से किसी पाठ्यपुस्तक में पढ़ने को मिल भी गया, तो बस चंद पंक्तियों में उसे खत्म कर दिया जाता है. वहीं कांग्रेस के नेताओं के बारे में बड़े बड़े लेख लिखे जाते है. भले ही उन नेताओं का हर एक आंदोलन निष्फल क्यों न हुआ हो? कई ऐसे भी क्रन्तिकारी है, जिनके बारे में आज भी देश नहीं जनता. क्रांतिकारियों ने देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान  कर दिया, परंतु उन्हें आज भी आतंकवादी कह कर ही बुलाया जाता है. देश की स्वतंत्रता के बाद उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह सम्मान तक उन्हें नहीं मिला और उनके द्वारा किये कार्यों को खास महत्व नहीं दिया गया. ऐसे ही कई घटनाओं में से एक है, रेल में जा रहे सरकारी खजाने को लूटने का, जिसे हम काकोरी कांड के नाम से जानते है. काकोरी कांड के बाद पूरी अंग्रेज सल्तनत हिल गई थी, क्योंकि यह सीधा अंग्रेजों के साथ टक्कर था. परंतु इसे उतना महत्व नहीं दिया गया जितना देना चाहिए था. आज हम इसी काकोरी कांड के बारे में बात करेंगे.

पृष्टभूमि
क्रन्तिकारी संगठनों के उदय का सिलसिला गाँधी के असहयोग आंदोलन के वापस लेने के साथ ही शुरू हो गया था. दरअसल असहयोग आंदोलन के समय में ही उत्तरप्रदेश के चौरा चौरी में कुछ लोग पुलिस चौकी के सामने शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे. ऐसे में पुलिस ने भीड़ पर गोली चला दिया. उस गोलीबारी में 20 से 22 लोग मर गए. इस गोलाबारी से गुस्साए भीड़ ने पुलिस वालों को चौकी में बंद कर के आग लगा दिया, जिस से 22 पुलिस वालों की मौत हो गई. इस घटना से आहत होकर गाँधी ने यह कहते हुए असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया कि देश अभी आजादी के लिए तैयार नहीं है. यह वही गाँधी है, जिन्होंने ने 1921 में मालाबार में हुए हिन्दुओं के नरसंहार, जिसे मोपला नरसंहार के नाम से जाना जाता है, के बाद भी असहयोग आंदोलन को वापस नहीं लिया था. इस आंदोलन से कई लोगों की भावनाएँ आहत हुई. खास कर वो लोग खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे, जिन लोगों ने गाँधी के कहने पर अपनी सरकारी नौकरी को छोड़ दिया था और अब वह वापस नहीं जा सकते थे. इसमें वो 13 से 16 वर्ष के बच्चे भी थे, जिन्होंने ने अपने स्कूल की पढाई छोड़ दिया था और अब सरकारी स्कूल के रास्ते उनके लिए बंद हो चुके थे. बाकि लोग तो कैसे भी इस घटना को भूल गए, किन्तु कम उम्र में मन पर लगे चोट से वो बच्चे उभर नहीं पाए और उनका मन गाँधी और अहिंसा से उठ चूका था. इन्ही बच्चों में आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, भगवती चरण वोहरा इत्यादि शामिल थे. इस घटना के बाद सतिन्द्रनाथ सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएसन HRA का गठन 1923 में किया. यह एक क्रांतिकारी संगठन था, जो देश की आजादी के लिए मरने मारने से भी पीछे नहीं हटता था.
इसके गठन के बाद क्रांतिकारियों ने इस नई नवेली पार्टी का संविधान तैयार किया. उसके बाद इस नए संविधान और उसके पर्चे लेकर उसे बाँटते हुए शचीन्द्रनाथ सान्याल और योगेशचन्द्र चटर्जी दोनों गिरफ्तार कर लिए गए. इन दोनों की गिरफ्तारी के बाद पार्टी की जिम्मेदारी सीधे सीधे रामप्रसाद बिस्मिल के कंधो पर आई गई. पार्टी को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है और उस समय पार्टी के पास धन नहीं था हालाँकि क्रांतिकारियों ने दो जगह राजनैतिक डकैतियाँ डाली थी, परन्तु वहाँ से ज्यादा पैसा नहीं मिले ऊपर से इस राजनैतिक डकैती के समय कुछ बेगुनाह लोग मरे गए थे. वो राजनैतिक डकैती इस वजह से थी, क्योंकि क्रांतिकारी उस पैसे का उपयोग खुद के लिए नहीं करते थे. परन्तु ऐसा करने से अंग्रेज इन क्रांतिकारियों को चोर डकैत बताते और लोग भी यही समझने लगे थे. ऐसे में किसी के घर पर डकैती कर के पैसे तो मिल जाते थे, परंतु ये उसी जनता की नजर में बदनाम हो जाते, जिसके लिए वो लड़ रहे थे. ऐसे में क्रांतिकारी किसी दूसरे विकल्प की तलाश में थे. तभी इन क्रांतिकारियों को सुचना मिला कि अंग्रेज सरकारी खजाना एक ट्रैन में ले जा रहे है और उस खजाने को वो बाद में इंग्लैंड भेज देंगे बस फिर क्या था? अंग्रेजों को के खजाने को लूटने की योजना पर खुशी खुशी काम होने लगा. क्योंकि एक तो अंग्रेजों से सीधे भिड़ने का मौका था और इस से पैसे भी मिल रहे थे. हालाँकि असफाक उल्ला खान ने इसका विरोध यह कहते हुए किया था कि "भले ही यह अंग्रेज सरकार के साथ सीधी टक्कर हो. परंतु अभी हमारी पार्टी नई है और हम अभी इतने ताकतवर नहीं है कि हम सीधे सीधे अंग्रेज सरकार से टक्कर ले सके. ऐसे में हमारी पार्टी का पतन शुरू हो जाएगा. असफाक उल्ला खान कि बात थी तो सही ही, परंतु फिर भी यह प्रस्ताव बहुमत से पारित हो गया और काकोरी में ट्रेन को लूटने की योजना बन गई.

9 अगस्त 1925 का दिन
9 अगस्त 1925 के दिन ही सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में सरकारी खजाने को ले जाया जा रहा थे. उस दिन क्रांतिकारी भी ट्रेन में चढ़ गए. इन क्रांतिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में चंद्रशेखर आजाद के अलावा और 8 क्रांतिकारी, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मन्मथनाथ गुप्त एवं मुकुन्दी लाल, शामिल थे. काकोरी स्टेशन से जैसे ही ट्रेन आगे बढ़ी, बिस्मिल के इशारे पर राजेंद्र लाहिड़ी ने जंजीर खींच कर ट्रेन को रोक दिया. उसके बाद सभी क्रांतिकारी उस ट्रेन में सवार पैसेंजर्स को यह भरोषा दिलाते और डराते हुए आगे बढे कि सभी शांत बैठे रहे. उन्हें कुछ नहीं होगा. उसके बाद जिस डब्बे में खजाना था, उस डब्बे तक पहुँचे और खजाने को अपने कब्जे में ले लिया. सबसे पहले तो खजाने के डब्बे को खोलने का प्रयास किया गया. डब्बा न खुलने की स्थिति में डब्बे को हथोड़े के प्रहार से तोड़ दिया गया. इस तरह से उस खजाने को लूट कर क्रांतिकारी वहाँ से भाग निकलने में सफल रहे. बस यहाँ मन्मथनाथ गुप्त एक चूक कर बैठे. अति उत्साह और जल्दीबाजी में उनके पिस्टल से गोली चल गई और जिसमें अहमद अली नमक शख्स की मौत हो गई. इस डाके में करीब 4000 रुपये की लूट हुई थी.

अंग्रेजी सरकार की बौखलाहट और धरपकड़
काकोरी कांड का मकसद सिर्फ अंग्रेजों के सरकारी खजाने को लूटना था और उन्हें एक कड़ा संदेश पहुंचाना था. इस घटना के बाद समाचार पत्रों के माध्यम से यह खबर पुरे विश्व में फैल गई. इस घटना से और इस खबर के फैलने से अंग्रेजी सरकार बौखला गई. यह सीधे सीधे अंग्रेजी सरकार के अहम पर चोट था. अंग्रेजी सरकार इन सभी क्रांतिकारियों को एक सबख सीखना चाहती थी. ऊपर से अहमद अली की मौत से सरकार को बहाना भी मिल गया था. अंग्रेजी हुकूमत ने सी आई डी के अधिकरी हार्टन को जाँच में लगा दिया. वह खान बहादुर तसद्दुक हुसैन के साथ मिल कर जाँच में जुट गया. इतना तो सभी को पता था कि यह सब किया धरा क्रांतिकारियों का ही है. इसकी के साथ पुलिस ने काकोरी के दोषियों के बारे में जानकारी देने वाले को इनाम देने की घोषणा कर दिया. 
जाँच की शुरुआत में पुलिस की मददगार बनी एक चादर, जिसमें लूट के पैसे भर कर भागने के लिए क्रांतिकारी लेकर गए थे. उस चादर पर लागे धोबी के मोहर से पुलिस उस धोबी तक पहुँची और बाद में उसके मालिक तक. यह चादर था शाहजहांपुर के बनारसीलाल का. पुलिस बनारसीलाल तक पहुँच गई और बनारसीलाल से पूरा भेद पता कर लिया. पुलिस को अब पता चल चूका था कि इस कांड के पीछे HRA के क्रांतिकारियों का हाथ है, जिसका नेतृत्व रामप्रसाद बिस्मिल ने किया था. बस पुलिस इन क्रांतिकारियों कि धरपकड़ में लग गई. इस घटना से अंग्रेजी सरकार इस कदर बौखला गई थी कि इस काकोरी कांड में केवल 10 लोग ही शामिल थे, परंतु अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार किया 40 लोगों को. बस एक मात्र पंडित चंद्रशेखर आजाद भेष बदल कर निकल गए.

मुकदमा और फाँसी
काकोरी कांड के सभी अभियुक्त लखनऊ के जेल में बंद थे कोर्ट में मुकदमे की सुनवाई के लिए जाते समय कोई नारा लगाने के लिए सभी क्रांतिकारियों ने बिस्मिल जी से कुछ लिखने को कहा क्रांतिकारियों में रामप्रसाद बिस्मिल असफाक उल्ला खान और भगत सिंह बहुत अच्छी कविताएँ लिखते थे सभी क्रांतिकारियों के कहने पर रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा

मेरा रँग दे बसन्ती चोला.
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बंधन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला
मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला

इसी कविता में भगत सिंह ने कुछ अपनी पंक्तियाँ भी जोड़ी थी
चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने सभी पेश हुए. जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया. जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के०सी० दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की. राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने अपनी पैरवी खुद की. क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण सा वकील दिया गया था, जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया.
बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब फर्राटेदार अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की, तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला बगलें झाँकते रह गए. इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् को बिस्मिल से अंग्रेजी में यह पूछना पड़ा,
"Mr. Ramprasad! From which university you have taken the degree of law?" 
(श्रीमान राम प्रसाद! आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है?)
इस पर बिस्मिल ने हँस कर उत्तर दिया,
"Excuse me sir! A king maker doesn't require any degree"
(क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती.)

जगतनारायण मुल्ला ने अभियुक्तों के लिए "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया. फिर क्या था? पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: 
"मुलाजिम हमको मत कहिये,
बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं.
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;
कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं."

इतना सुनते ही मुल्ला जी के पसीने छूट गए और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी. वे चुपचाप पिछले दरवाजे से निकल गए. बिस्मिल द्वारा की गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गई. मुल्ला जी ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी करने लगे. इसीवजह से अदालत ने बिस्मिल की 18 जुलाई 1927 को दी गई स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दिया. उसके बाद उन्होंने 76 पन्नों की लिखित बहस पेश की, जिसे देखकर जजों ने यह शंका व्यक्त किया कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी और से लिखवाया है.  इसी वजह से उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी, जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था. यह भी अदालत और सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला की मिली भगत से किया गया. क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लड़ने की छूट दी जाती, तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती.
22 अगस्त 1927 को अदालत ने अपना फैसला सुनाया, उसमें रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, असफाक उल्ला खान और रोशन सिंह को फाँसी की सजी दी गई. बाकियों को 5 वर्ष की सजा से लेकर कालापानी तक की सजा दे गई. अपने लिए फाँसी की सजा सुन कर रोशन सिंह हँस पड़े और कहा, "मैं तो इस ट्रेन डकैती में शामिल भी नहीं था. फिर भी फाँसी की सजा दे दिया! देखा पंडित जी (रामप्रसाद बिस्मिल). इस ठाकुर ने आपका साथ ऊपर जाते समय भी नहीं छोड़ा." यह सुनकर सभी हँस पड़े.
राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसंबर 1927 के दिन तथा असफाक उल्ला खान, रोशन सिंह और रामप्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 के दिन फाँसी दी गई.

देश के लिए अजीब दीवाने थे यह सभी! मौत का कोई भय नहीं था. सभी हँसते हँसते फाँसी पर चढ़ गए. फाँसी पर चढ़ते समय असफाक उल्ला ने कहा था कि "बिस्मिल जी बड़े किस्मत वाले है वो मातृभूमि की सेवा के लिए बार बार जन्म ले सकते है. परंतु मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. क्योंकि हमारे धर्म में पुनर्जन्म होता ही नहीं है." इतनी सी उम्र में देश के लिए ऐसा जज्बा, देश के लिए ऐसा प्रेम, आपको उनके बारे में सोचने को मजबूर कर देता है. ऐसे ही उनके सम्मान में हमारा सर प्रेम नहीं नहीं झुक जाता. ऐसे ही नहीं उसके बारे में सुन कर हमारी छाती गर्व से चौड़ी नहीं हो जाती. मेरे प्यारे देश की और उस पर मरने वालों की बात ही निराली है.

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जय हिन्द
वंदेमातरम

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