सोच उम्र की मुताज नहीं होती है. कई बार छोटी सी उम्र में भी कई लोग इतने बड़े बड़े काम कर देते है कि उम्र में उन से बड़े लोग भी उसने सम्मान में अपना सर झुका देते है. देश के आज़ादी के समय का माहौल भी कुछ ऐसा ही था. एक तरफ जहा बूढ़े लोग अहिंसा के मार्ग पर चलने कि प्रेरणा दे रहे थे, उसी समय कुछ नौजवान खून जिनका अहिंसा वाली लड़ाई पर से विश्वास उठ चूका था, वो देश कि आजादी के लिए लड़ने मरने तक को तैयार थे. भगत सिंह, सुखदेव, जतिन दास, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, खुदीराम बोष, प्रफुल चाकी, भगवती चरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद इत्यादि इनमें प्रमुख थे. इन सभी क्रांतिकारियों की आयु उस समय महज 14 से 16 वर्ष की रही होगी, जब ये लोग गाँधी द्वारा चलाये असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे. और गाँधी के चौरी चौरा कांड के बाद अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लेने से इस सभी के मन को ऐसी चोट पहुंची कि सभी अपने प्राणों की परवाह किये बिना आजादी की लड़ाई में कूद पड़े और मरने मारने को तैयार हो गए. आज हम बात करने जा रहे है ऐसे क्रन्तिकारी की, जिन्होंने अपने नाम में ही "आजाद" जोड़ लिया था और वह इसी नाम से मशहूर हुए.
प्रारंभिक जीवन
मध्य प्रदेश के भाबरा में रहने वाले सिताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर 23 जुलाई 1906 के दिन एक बच्चा पैदा हुआ. दोनों ने बच्चे का नाम रखा चंद्रशेखर तिवारी. बचपन से ही चंद्रशेखर की रूचि पढाई में नहीं था. घर वालो की लाख कोशिश के बावजूद चंद्रशेखर पढाई नहीं करते थे. उसकी जगह अपने भील दोस्तों के साथ मिल कर तीरंदाजी करते थे. चंद्रशेखर बचपन से ही बहुत साहसी थे.
चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर "आजाद"
जलियावाल बाग में 13 अप्रैल 1919 जनरल डायर के द्वारा किए गए हत्याकांड कांड के पुरे देश में प्रदर्शन हो रहे थे. ऐसे ही किसी प्रदर्शन करते हुए चंद्रशेखर की धरपकड़ हुई. उसके बाद उनके मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. उस समय चंद्रशेखर महज 13 वर्ष के थे. मजिस्ट्रेट ने कड़क आवाज में जो सवाल पूछा चंद्रशेखर ने उसी तरह अकड़ कर जवाब दिया.
मजिस्ट्रेट: तुम्हारा नाम क्या है?
चंद्रशेखर: आजाद.
मजिस्ट्रेट: पिता का क्या नाम है?
चंद्रशेखर: स्वधीनता.
मजिस्ट्रेट: कहाँ रहता है?
चंद्रशेखर: जेल में.
चंद्रशेखर का ऐसा जवाब सुन कर मजिस्ट्रेट क्रोधित हो गया और चंद्रशेखर को 15 बेंत मरने की सजा सुनाई. चंद्रशेकर हर बेंत की मार पर वन्देमातरम का नारा लगते और बाद में बेहोश हो गए. अगली सुबह या खबर आगे की तरह फैली और यहीं से वह चंद्रशेखर तिवारी से चंद्रशेखर "आजाद" के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
गाँधी से मोह भांग होना और क्रांति के मार्ग पर चलना
गाँधी ने 1920 में असहयोग आंदोलन करने की घोषणा कर दिए. जिसमें सभी देशवासियों को इस आंदोलन से जुड़ने के लिए कहा गया. गोरों की पढाई न करें. गोरों की नौकरी न छोड़ दें. विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर दें. कोई अंग्रेज की मदद नहीं करेगा. ऐसा करने आजादी मिल जाएगी, ऐसा वादा किया. सरकारी नौकरी करने वालो ने अपनी नौकरी छोड़ दिया. बच्चों ने पढाई छोड़ दिया. अपने छोटे छोटे हाथों से पर्चे बाँटते. विदेशी कपड़ों की होली जलाते. अंग्रेजों को कमर टूट गई थी. जब ऐसा लग रहा था कि आजादी जल्द ही मिल जाएगी, तभी उत्तर प्रदेश में चौरी चौरा कांड हो गया और गाँधी ने यह कहते हुए अपने इस आंदोलन को 1922 में वापस ले लिया कि "देश अभी आजादी के लिए तैयार नहीं है." यह बात आजाद जी को पसंद नहीं आई और उनका गाँधी और अहिंसा से मोह भांग हो गया. तब आजाद जी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन HRA से जुड़ गए. तब उनकी उम्र महज 16 वर्ष की थी.
काकोरी कांड और भगत सिंह से मुलाकात
क्रांति के लिए पैसा की जरुरत होती है. उस समय भी क्रांतिकारियों के सामने पैसे की समस्या आती थी. पहले वह किसी बड़े जमींदार के घर डकैती कर के पैसे तो जूता लेते थे, परन्तु उस जनता की नजर में बदनाम हो जाते थे, जिसके लिए वह लड़ रहे है. इसी वजह से तय हुआ कि सरकारी खजाना ट्रेन से ले जाया जा रहा था, उसे काकोरी स्टेशन पर लूट कर पैसे ईकठ्ठा करने की. 1925 में काकोरी ट्रेन को लूट लिया गया. जिसमें आजाद, बिस्मिल, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खान को फांसी की सजा हुई. बस आजाद जी बच निकले. क्योंकि आजाद जी भेष बदलने में बड़े माहिर थे. उसके बाद आजाद जी भगत सिंह से मिले और अपना क्रांति उनके साथ आगे बढ़ाया. उस समय इनके क्रांतिकारियों के दल में जितने भी क्रांतिकारी थे, सभी हमउम्र थे. जिनकी उम्र 19 20 वर्ष के आसपास ही थी. आजाद जी ब्राम्हण थे और खूब कसरत किया करते थे. इसी वजह से सभी उनमे सम्मान से पंडित जी बुलाने लगे.
बाद में भगत सिंह और पंडित जी ने पार्टी का नाम बदल कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन HSRA रखा, जिसके कमांडर इन चीफ चंद्रशेखर आजाद थे.
सौंडर्स की हत्या
1929 में साइमन कमीशन का गठन हुआ, जिसमें सभी अंग्रेज ही थे. उसी साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए लाला लाजपत राय ने एक प्रदर्शन करने का निर्णय लिया. उसी प्रदर्शन के दौरान स्कॉट नाम के एक अंग्रेज ने लाला जी पर लाठियों तब तक बरसाई, जब तक लाला जी बेहोश नहीं हो गए. बाद में उनकी मृत्यु हो गई. HSRA ने लाला जी की एक मृत्यु का बदला लेने का फैसला किया. इसे योजना को अंजाम देने में पंडित जी, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु शामिल थे. परंतु जिसे स्कॉट को पहचान कर इशारा करना था, उस से चूक हुई और उसे सौंडर्स को स्कॉट समझ कर इशारा कर दिया. इस तरह से गलती से सौंडर्स की हत्या हो गई. उसके बाद सभी भेष बदल कर वहाँ से निकल गए और बंगाल पहुँचे.1929 में साइमन कमीशन का गठन हुआ, जिसमें सभी अंग्रेज ही थे. उसी साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए लाला लाजपत राय ने एक प्रदर्शन करने का निर्णय लिया. उसी प्रदर्शन के दौरान स्कॉट नाम के एक अंग्रेज ने लाला जी पर लाठियों तब तक बरसाई, जब तक लाला जी बेहोश नहीं हो गए. बाद में उनकी मृत्यु हो गई. HSRA ने लाला जी की एक मृत्यु का बदला लेने का फैसला किया. इसे योजना को अंजाम देने में पंडित जी, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु शामिल थे. परंतु जिसे स्कॉट को पहचान कर इशारा करना था, उस से चूक हुई और उसे सौंडर्स को स्कॉट समझ कर इशारा कर दिया. इस तरह से गलती से सौंडर्स की हत्या हो गई. उसके बाद सभी भेष बदल कर वहाँ से निकल गए और बंगाल पहुँचे.
जतिन दास से मुलाकात और बम बनाना सीखना
पंडित जी, भगत सिंह और बाकि क्रांतिकारियों के साथ गाँधी को सुनकर आ रहे थे. जिसमें गाँधी ने डोमिनियन स्टेटस की माँग किया था. डोमिनियन स्टेटस मतलब आधा राज्य. वहाँ से यह सभी क्रांतिकारी केमिस्ट्री के गुरु जतिन दास के पास पहुँचे. जतिन दास बम बनाने में माहिर थे. सभी क्रांतिकारियों ने जतिन दास को साथ में मिल कर काम करने को और उन्हें बम बनाना सीखने को कहा. जतिन दास ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है ऐसा कह कर बम बनाने से या सिखाने से मना कर दिया था. बाद में सभी के समझाने पर जतिन दास मान गए थे और सभी को बम बनाना सिखाया था.
उस समय कारखानों में मजदूरों पर कई तरह के ज़ुल्म हो रहे थे. उसके खिलाफ मजदुर कारखानों में हड़ताल पर हड़ताल कर थे. अंग्रेजों ने पब्लिक सेफ्टी बिल और पब्लिक डिस्प्यूट बिल कर मजदूरों से उनसे विरोध करने का अधिकार भी छीन लिया. असेम्बली में बैठे लोगों ने इसका विरोध तो किया, परंतु इस बिल को रोक पाना उनके लिए नामुकिन था. तब HSRA ने असेम्बली में बम फोड़ने की योजना यह कह कर बनाया गया कि "गोरों की जात बहरी होती है और बहरों को सुनाने की लिए धमाके की जरुरत होती है." परंतु उस समय आतंकवादी के नाम से प्रसिद्ध ये क्रांतिकारी मानव जीवन की बहुत इज्जत करते थे. इसी वजह से बम को सिर्फ ऐसा बनाया गया था जिस से सिर्फ आवाज हो और धुआँ निकले.
8 अप्रैल 1929 असेंबली में बम ब्लास्ट के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपनी गिरफ्तारी दिया. उसके बाद कोर्ट ट्रायल के समय इनके जवाब से अखबारों के द्वारा पुरे देश ने बम बनान सीख लिया. उसके बाद जेल में किए अपने भूख हड़ताल से की वजह से भगत सिंह पुरे देश में प्रसिद्ध हो गए और उसके बाद भगत सिंह ने HSRA के विचारों को देश के बच्चों बच्चों तक पहुँचा दिया था. इस समय भगत सिंह की प्रसिद्धि गाँधी की बराबर हो चुकी थी. तब इन्ही के एक साथी ने गद्दारी कर दिया और अंग्रेजो को सौंडर्स की हत्या के बारे में सब कुछ बता दिया था. उसके बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर सौंडर्स की हत्या का मुकदमा चला और इन तीनों को फांसी की सजा हो गई.
अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से मुठभेड़
पंडित जी किसी भी कीमत पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर चढ़ने नहीं देना चाहते थे और किसी भी कीमत पर इन तीनों को बचा कर वापस लाना चाहते थे. परंतु भगवती चरण वोहरा के बलिदान से पंडित जी टूट गए. अंग्रेजों में पंडित जी का बहुत ही ज्यादा खौफ था. परंतु पंडित जी कभी पकड़े नहीं गए. एक दिन अंग्रेजों के किसी मुखबिर ने खबर दिया किया कि चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में अकेले है. अंग्रेज बिना किसी देरी के अल्फ्रेड पार्क में पहुंच गए. पंडित जी हमेशा अपने पास थोड़ी ज्यादा गोलियाँ रखते थे. उस समय पुलिस और इनके बीच अगले 20 मिनट तक मुठभेड़ हुई. दोनों तरफ से गोलियाँ चली. जब पंडित जी की गोलियाँ खत्म होने लगी, तो पंडित जी ने अपनी अंतिम गोली खुद को मार लिया. क्योंकि पंडित जी ने प्रण लिया था कि "आजाद हूँ और आजाद ही रहूँगा. मैं कभी जीवित नहीं पकड़ा जाऊंगा." परंतु अंग्रेजों में पंडित जी का इतना का खौफ था कि अंग्रेज उनके मरने के बाद भी उनके पार्थिव शरीर के पास नहीं आए और कुछ समय तक इनके पार्थिव शरीर पर गोलीय चलाते रहे. इस तरह से 27 फरवरी 1931 को पंडित जी ने अपना बलिदान दिया.
पंडित जी से जुड़े किस्से
पंडित जी की मृत्यु के बाद कई बातें तैरने लगी. उनमें से एक यह थी कि पंडित जी के बारे में अंग्रेजों को खबर खुद जवाहर लाल नेहरू ने दिया था. हालाँकि इस बात में कितनी सच्चाई है इसका कोई सबूत नहीं है.
पंडित जी बहुत ही ज्यादा अनुशासन प्रिय इंसान थे. एक बार राजगुरु ने बाजार में से एक पोस्टर खरीद कर लाए. वह पोस्टर एक लड़की की थी, जो बिकनी में थी. उसे राजगुरु ने पार्टी दफ्तर में लगा दिया. HSRA के कमांडर इन चीफ यानि पंडित जी आए और उस पोस्टर को फाड़ दिया और कहा कि "या तो देश के लिए लड़ लो, या फिर यह कर लो."
पंडित जी कर बारे में पूर्ण चंद सनक अपनी किताब में लिखते है कि पंडित जी, कानपूर में एक डकैती की पर काफी समय से काम पर रहे थे. परंतु, बाद में उस डकैती से माना कर दिया. उसके पीछे यह कारण दिया कि इस डकैती में कुछ निर्दोष लोग मारे जायेंगे. पंडित जी ने कहा कि "मेरे लिए बर्बर सरकार को छोड़ कर हर एक जान कीमती है."
पंडित जी ने बचपन में ही अपना घर छोड़ दिया था. उस समय में उनके माँ बाप की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी. तब गणेश शंकर विद्यार्थी ने पंडित जी को कुछ पैसे देते हुए कहा कि "यह पैसे आप अपने माता पिता को भेज दे. उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है." इस पर पंडित जी ने भड़कते हुए कहा कि "अगर आपको वाकई में मेरे माता पिता कि मदद करना चाहते है तो आप उन्हें गोली मार दे. मेरे माँ बाप कैसे भी एक वक्त का खाना जुटा लेते है. परंतु ऐसे कई गरीब है जिन्हे एक वक़्त का खाना तक नहीं खा पाते. आप उन गरीबों की मदद करें." और उसके बाद पंडित जी वही पैसा पार्टी फण्ड में देने को कहते है.
पंडित जी उस समय शरण लेने के लिए वो झाँसी में मास्टर रूद्र नारायण के घर रुके हुए थे. मास्टर रूद्र नारायण चित्रकार थे. इन्होंने ही पंडित जी का एक प्रचलित चित्र बनाया था, जिसमें पंडित जी एक हाथ में बन्दुक लिए खड़े है और एक हाथ से अपनी मूंछो पर ताव दे रहे है. अंग्रेजों के पास पंडित जी की कोई तस्वीर नहीं थी. मास्टर रूद्र नारायण की आर्थिक स्थिति को देखते हुए पंडित जी आत्मसमर्पण करने को तैयार हो गए थे, जिस से चंद्रशेखर पर जो इनामी राशि है वह मास्टर रूद्र नारायण को मिल जाये. परंतु रूद्र नारायण इसके लिए कभी तैयार नहीं हुए.
पुराण चंद सनक ने ही लिखा है कि पंडित जी कहा करते थे कि हिन्दू राज और मुसलमान राज कुछ शाही लोगों के दिमाग की उपज है. हिन्दू राज या मुसलमान राज सब बेईमानी है. हमे ऐसा हिंदुस्तान बनाना है जहाँ एक साधारण इंसान खुल का जी सके. हर एक इंसान के जिंदगी की कीमत हो."
आजाद इसी वजह से आजाद थे, क्योंकि वह हर व्यक्तिगत मोह माया से ऊपर उठ चुके थे. 13 वर्ष की उम्र में ही देश के लिए कुछ करने की और देश के लिए मर मिटने की चाह लिए घर से निकलने वाला चंद्रशेखर तिवारी 24 वर्ष 7 महीने 4 दिन की उम्र में अपना सर्वोच्य बलिदान देने के बाद चंद्रशेखर आजाद और पंडित जी के नाम से विख्यात होता है और सभी को अपने सामने नत मस्तक कर देता है. जज़्बा यह होता है. उम्र वाकई में सिर्फ एक संख्या है. जरुरी है तो सोच और हौसला. आज उन्ही पंडित जी का जन्मदिवस है. आज सिर्फ उन्हें याद ही न करें, बल्कि कोशिश करें पंडित जी अपने अपने जीवन में उतारने की, पंडित जी को जीने की.
जय हिन्द
वंदेमातरम
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