गुमनाम क्रांतिवीर : भगवती चरण वोहरा Skip to main content

गुमनाम क्रांतिवीर : भगवती चरण वोहरा

भारत वर्ष हमेशा से ही वीरों का देश रहा है. भारत की भूमि पर ऐसे भी महान वीर हुए है, जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह ना करते हुए निस्वार्थ भाव से मातृभूमि की सेवा करते हुए अपने प्राण हँसते हँसते मातृभूमि पर ही नौछावर कर दिया है. जब जब बात क्रांतिकारियों की आती है तब सिर्फ भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ पंडित जी तक ही सिमट कर रह जाती है. आज मैं उस महान क्रांतिकारी के विषय में बताऊंगा, जो थे तो उन क्रांतिकारियों के साथी, पर शायद ही कोई उनके बारे में सही से जानता है. बात कर रहे है अपने साथियो में "भाई" ने नाम से मशहूर भगवती चरण वोहरा के बारे में.

प्रारंभिक जीवन
भगवतीचरण वोहरा का जन्म 4 जुलाई 1904 को आगरा में एक रेलवे अधिकारी शिवचरण वोहरा के घर हुआ था. बाद में वो अपने माता पिता के साथ लाहौर चले गए और वही बस गए. भगवतीचरण वोहरा की पढाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि गाँधी ने गोरो की नौकरी और पढाई न करने के लिए लोगो से अपील किया. भगवतीचरण गाँधी की आवाज़ पर अपने पढाई का झोला नाली में डाल कर असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले हजारों बच्चों में से एक थे. असहयोग आंदोलन में पर्चे बाँटना और विदेशी सामानों की होली जलाते. गाँधी के असहयोग आंदोलन में भाग लेते समय उन्होंने कभी सोचा तक नहीं होगा की अहिंसक आंदोलन में भाग लेने वाला कभी "फिलोसोफी ऑफ़ बम" भी लिखेगा. गाँधी ने चौरा चौरी कांड के बाद यह कह कर आंदोलन को वापस ले लिया कि "देश आज़ादी के लिए अभी तैयार नहीं है". परन्तु जिन लोगो ने गाँधी के कहने पर सरकारी नौकरी और सरकारी पढाई छोड़ दिया था, उनके लिए दफ्तरों और कॉलेज के दरवाजे बंद हो चुके थे. लाला जी ने ऐसे बच्चों के लिए नेशनल कॉलेज बनवाया था. भगवतीचरण वोहरा ने भी उसी कॉलेज में प्रवेश ले लिया.

भगत सिंह और अन्य साथियो से मुलाकात
नेशनल कॉलेज में ही भगवतीचरण वोहरा की मुलाकात भगत सिंह, सुखदेव, जयदेव जैसे साथियो से हुई और सभी ने साथ में मिल कर देश के लिए कुछ करने सोचा. उसी कॉलेज के प्रो विद्यालंकार जी के कहने पर हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल होने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल जी से मिलने गए पूरी बात तय तो हो गई और काकोरी कांड के बाद मिलने को कहा. परन्तु काकोरी कांड के बाद ऊपर तक हिल चुकी अंग्रेजी सत्ता ने बिस्मिल समेत कई क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया. हमेशा की तरह चंद्रशेखर आजाद बच निकले. बाद में भगत सिंह ने चंद्रशेखर आजाद की नेतृत्व में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को आगे बढ़ाया और साथ ही में सुखदेव भगवतीचरण और जयदेव भी इसमें जुड़ गए.

निस्वार्थ देशप्रेम
भगवतीचरण वोहरा आंदोलन की नींव की ऐसी ईंट थे, जिसे कभी शिखर पर दिखने का लोभ नहीं हुआ. बल्कि वे कहते थे कि 'इस आंदोलन के लिए ऐसे ही लोग चाहिए जो आशा की कोई किरण न होने बाद भी, भय व झिझक के बिना युद्ध जारी रख सकें. जो आदर-सम्मान की आशा रखे बिना उस मुत्यु के वरण को तैयार हों, जिसके लिए न कोई आंसू बहे और न कोई स्मारक बने.' इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि जब 1928 में नौजवान भारत सभा का गठन किया तो उसका महासचिव भगत सिंह को बनाया और खुद प्रचार सचिव बने. यहाँ तक कि उन पर एक बार जासूसी का आरोप तक लगा. प्रो और क्रांतिकारी विद्यालंकार जी ने भगवतीचरण पर CID का जासूस होने का और CID से ही वेतन पाने का आरोप लगाया. भगवतीचरण ने इसका जवाब देते होते सिर्फ इतना ही कहा कि "जो उचित लगे उसे कार्य को करना मेरा काम है, न कि किसी को सफाई देना और न नाम कमाना". भगवतीचरण वोहरा ही यह बात इस वजह से भी सच थी, क्योकि भगवतीचरण के लाहौर में तीन घर, लाखो कि सम्पति और बैंक में हजारों रुपये थे, पर वह भोग विलासिता कि जिंदगी छोड़ कर क्रांति के कठिन पथ को चुना और उसमें कदम कदम पर उनका साथ दिया उनकी धर्मपत्नी ने. बालविवाह की कुप्रथा की वजह से भगवतीचरण वोहरा का विवाह 1918 में ही दुर्गावती के साथ ह गया था. पर उस समय की यह कुप्रथा भगवतीचरण वोहरा के लिए वरदान सिद्ध हुई. दुर्गावती, जो HRA में दुर्गा भाभी के नाम से प्रसिद्ध थी, वो अपने पति भगवारीचरण वोहरा से भी बड़ी क्रांतिकारी सिद्ध हुई.

भगवतीचरण वोहरा के बड़ी योजनाएँ विफल हो गई. अगर वो दोनों बड़ी योजनाएँ सफल हो जाती तो उस समय हमारे स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास कुछ और होता. वो दोनों योजनाएँ थी: वायसराय को बम से उड़ाना और भगत सिंह सुखदेव राजगुरु को जेल से छुड़ाना.

'वायसराय को बम से उड़ाना
23 दिसंबर 1929 का दिन दिल्ली से आगरा जा रहे वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन को उड़ाने को तयारी थी. भगवतीचरण वोहरा ने इसके लिए एक महीने से तैयारी कर रहे थे. ट्रेन में धमाका भी हुआ, पर खाना बनाने वाले डब्बे के परखचे उड़ गए. वायसराय इस हमले में बाल बाल बच गया. परन्तु एक व्यक्ति की इसमें मौत हो गई. गाँधी ने इस घटना के बाद ईशवर का धन्यवाद् करते हुए "यंग इंडिया" में "बम की पूजा" शीर्षक से एक लेख लिखा और उसमें गाँधी ने क्रांतिकारियों को खूब कोसा. इसके जवाब में चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के कहने पर भगवतीचरण वोहरा ने "बम का दर्शन" (फिलोसोफी ऑफ बम) नाम से लेख लिखा. यह लेख आम जानता में बहुत लोकप्रिय हुआ.
हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने बहुत परिश्रम कर के बम बनाना रसायन शास्त्र के गुरु जतिन दास से सीखा था. वे सभी मानव जीवन के मूल्य को जानते समझते थे. इसी वजह से जब 8 अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फोड़ा, तो उस बम को कम घातक बनाया. जिससे धमाका तो हो पर किसी की जान न जाये. पर ये क्रांतिकारी किसी गोरे की जान लेने से नहीं हिचकते थे. क्योंकि ये बर्बर गोरी सरकार के नुमाइंदे थे और भारतीय पर तरह तरह के ज़ुल्म करते थे.

भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की तैयारी
असेंबली में बम फोड़ने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया था. पर बाद में जेल में उन पर सॉडर्स मर्डर केस चलाया गया और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा दे दी गई. वे सभी इस सजा से बहुत खुश थे, परन्तु चंद्रशेखर आजाद ऐसे महान क्रांतिकारियों को ऐसे अपना जीवन खत्म करने देने को तैयार नहीं थे. इसी वजह से चंद्रशेखर आजाद ने भगत सिंह और साथियों को जेल से आजाद करवाने की जिम्मेदारी भगवतीचरण को सौंपा. योजना भी बन गई, योजना यह थी कि उन तीनों को लाहौर जेल से न्यायालय ले जाते समय अचानक धावा बोलकर छुड़ा लिया जाए. चूंकि उन्हें कड़ी सुरक्षा के बीच लाया ले जाया जाता था, इसलिए इस धावे के लिए अपेक्षाकृत बेहतर तकनीक वाले और ज्यादा शक्तिशाली बमों की आवश्यकता महसूस की गई. भगवतीचरण वोहरा बम बनाने में माहिर थे. भगवतीचरण वोहरा ने एक बम भी बना लिया था. परन्तु वो बम कही मौके पर धोखा न दे जाए, इसी वजह से उसे इस्तेमाल करने से पहले परिक्षण करने का सोचा. इसके लिए उन्होंने रावी नदी का तट चुना. बम का परिक्षण करते समय वह विफल रहा और बम नजदीक में ही फट गया. बम फटने से उनके एक हाथ की उंगलियां उड़ गईं, दूसरा कलाई से आगे पूरा उड़ गया और पेट फट गया और आंतें बाहर निकल आईं. मौत को कुछ ही पलों के फासले पर खड़ी देखकर भी वे विचलित नहीं हुए और साथियों से कहा कि "ये नामुराद मौत दो दिन टल जाती तो इसका क्या बिगड़ जाता? अच्छा हुआ कि जो कुछ भी हुआ, मुझे हुआ. किसी और साथी को होता तो मैं भैया यानी ‘आजाद’ को क्या जवाब देता?" दो दिन बाद में मौत से उनका तात्पर्य था कि इस समय में वो भगत सिंह राजगुरुऔर सुखदेव को छुड़ा लेते. इस तरह से 28 मई 1930 को भगवतीचरण वोहरा मातृभूमि कि निस्वार्थ सेवा में अपने प्राणों की आहुति दे दिया.

भगवतीचरण वोहरा की मृत्यु के बाद चंद्रशेखर आजाद ने कहा था कि "आज मेरा दाहिना हाथ कट गया" और महज एक वर्ष के बाद ही चंद्रशेखर आजाद अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेज पुलिस के साथ हुए एनकाउंटर में उनकी गोलियाँ खत्म हो जाने पर खुद को गोली मार कर अपने प्राणों कि आहुति दे दिया.

भगत सिंह भगवतीचरण वोहरा की मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत रोये और कहा कि "हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कड़ी मात्र होंगे, जिसका सौंदर्य कॉमरेड भगवतीचरण वोहरा के आत्मत्याग से निखर उठा है." भगत सिंह को अपना बलिदान भगवतीचरण वोहरा के बलिदान के आगे तुच्छ लगता था.

भगवतीचरण वोहरा कोकरी से लेकर लाहौर तक लगभग हर क्रांतिकारी गतिविधि में शामिल थे. परन्तु वह न ही कभी पकड़े गए और न ही उनका कभी नाम सामने आया. भगवतीचरण वोहरा कभी भी पकड़े जाने के डर की वह से पीछे नहीं हटे. परन्तु यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे महान क्रांतिकारी के विषय में हमे हमारे पाठ्यपुस्तक में नहीं पढ़ाया जाता है. ऐसे महान क्रांतिकारी को हमारा नमन है.

जय हिन्द
वंदेमातरम

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