शुतुरमुर्ग एक ऐसा पक्षी है, जो मिट्टी में अपने सर को धँसा कर शायद यह अपने आसपास की परेशानी से या आसपास के खतरे से या आसपास के परिस्थितियों से खुद को अलग करने की कोशिश करता है. शुतुरमुर्ग की हरकत शायद आपको विचित्र लग सकता है. परंतु इस से भी ज्यादा यह तब विचित्र लगता है, जब शुतुरमुर्ग की तरह ही इंसान भी मिट्टी में अपने सर को धँसा कर बैठ जाते है. यह किसी खतरे से नहीं परंतु अपने दोहरे चरित्र की वजह से ऐसा करते है. जब किसी इंसान की हत्या या किसी बहन बेटी के साथ दुष्कृत्य कुछ असामाजिक तत्त्वों के द्वारा कर दिया जाता है, तब यह लोग सबसे पहले उन इंसान/बहन बेटी का धर्म या जाति के बारे में जानने के बाद अपने प्रोपेगंडा के लिए लाभ होने पर ही कुछ बोलते है और अगर उनके प्रोपेगंडा को लाभ न होने पर, वो शुतुरमुर्ग की तरह मिट्टी में अपने सर को धँसा देते है और चुप रहते है. आज हम कुछ ऐसे ही लोगों की मानसिकता के बारे में बात करेंगे.
एक भीड़ द्वारा किसी एक इंसान की पिट पिट का हत्या कर देने को लिंचिंग कहते है. यह कई कारणों से हो सकता है. आपसी दुश्मनी की वजह से, कोई निजी स्वार्थ सिद्ध करने की वजह से या फिर किसी तरह के अजेंडे को फैलाने के लिए. परंतु यह यही पर नहीं नहीं रुकता. यहाँ से कुछ बुद्धिजीवी, सेक्युलर और मीडिया के लोग इसे सांप्रदायिक रंग देने लगते है और बिना किसी तथ्य के सामने आए, बस अपना अपना राग अलापने लगते है और ऐसा दिखने लगते है जैसे भारत देश में किसी वर्ग विशेष पर बहुत ही ज्यादा अत्याचार हो रहा है. जबकि कई बार सच्चाई एकदम अलग होता है. परन्तु जब इसी प्रोपेगंडा को मीडिया हाउस, बुद्धिजीवी फैलाने लगते है, तो इससे दो वर्गों में असुरक्षा की भावना बढ़ने लगती है और बाद में इसके दुष्परिणाम धीरे धीरे सामने आते है. ऐसा ही हुआ जब तबरेज अंसारी की लिंचिंग हुई और इसके खिलाफ कई लोग प्रचार करने लगे. कुछ टिक टॉकर्स ने तो यहाँ तक कहा कि कल अगर उसी का बेटा कुछ करे तो उसे आतंकवादी मत कहना. कुछ बॉलीवुड के सेलिब्रिटीज को भारत में डर लगने लगा. भारत के उपराष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल के समाप्ति के भाषण में यहाँ तक कह दिया कि भारत के अल्पसंख्यकों में भय है. यहाँ पर वो जैन, बौद्ध, सिक्ख, पारसी की नहीं, बल्कि केवल एक विशेष अल्पसंख्यकों की बात कर रहे थे. जो वास्तव में दूसरा बहुसंख्यक है. वो इस बात को भूल गए थे कि अगर ऐसा कुछ होता तो वो भारत देश के उपराष्ट्रपति के पद पर नहीं होते.
कुछ ऐसा ही हुआ कठुआ केस में. जहाँ 8 वर्ष की बच्ची का बलात्कार होने के बाद लगभग पूरा बॉलीवुड उस घटना के खिलाफ उतर आया था. अच्छा भी था. क्योंकि एक बलात्कारी केवल बलात्कारी होता है और उस से किसी को सहानुभूति नहीं होना चाहिए.. परन्तु यहाँ पर भी इसे साम्प्रदायिकता का चोला पहना दिया गया और उस से भी एक कदम बढ़ कर भारत देश को ही रेप कैपिटल बताया जाने लगा. जिसे विदेशी मीडिया ने भी दिखाया और दिखाए भी क्यों न? वो भारत में आकर के तो तथ्यों की छानबीन तो नहीं ही करेंगे. वो तो वही बात कहेंगे, जो भारत देश के बड़े बड़े लोग, जिसे आजकल सेलिब्रिटी कहा जाता है, कहेंगे. पर आज भी भारत कई यूरोपियन देशों, ब्रिटेन और अमेरिका से कही ज्यादा सुरक्षित है महिलाओं के लिए. पर हम आज इस पर चर्चा नहीं कर रहे.
गलत को गलत कहने में कोई बुराई नहीं है. परंतु यहाँ पर ध्यान देने वाली बात है कि जब आरोपी किसी अल्संख्यक धर्म विशेष का हो और पीड़ित बहुसंख्यक धर्म का हो या फिर उस राज्य में कांग्रेस की सरकार हो, तब यही बुद्धिजीवी, सेक्युलर और मीडिया के लोग शुतुरमुर्ग की तरह मिट्टी में अपना सर धँसा लेते है और कोई कुछ नहीं बोलता. यह कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर कुछ नहीं बोलते. यह सिक्खों के नरसंहार पर कुछ नहीं बोलते. यहाँ तक कि अपने सबसे पसंदीदा मुद्दे 2002 में भी यह गोधरा कांड पर कुछ नहीं बोलते. जिसमें एक धर्म विशेष की भीड़ के द्वारा साबरमती ट्रेन के एक डब्बे को पेट्रोल छिड़क कर आग के हवाले कर दिया गया था. यह अजमेर रेप केस, जो शायद भारत का सबसे बड़ा रेप केस है, सूरत रेप केस, वड़ोदरा रेप केस और बुंदेलशहर रेप केस के बारे में बात नहीं करेंगे. यह अपने धर्म का मजाक बनाने वाले का गाला काटने वालों का समर्थन खुल कर करेंगे. वहीं अगर इसी धर्म विशेष का कोई दूसरे धर्म के देवी देवताओं का मजाक बनाता है, तो उसे फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के नाम पर बचाने पहुंच जाते है. यह अंकित शर्मा, दिलबर नेगी, कमलेश तिवारी, अंकित सक्सेना, निकिता तोमर, पालघर पर कुछ नहीं बोलेंगे. अब इसी क्रम में एक नाम और जुड़ गया है रिंकू शर्मा का, पर यहाँ पर बुद्धिजीवी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर कही धंसाए हुए है.
इन जैसे शुतुरमुर्गों के की वजह से आज समाज के वर्गों में खाई सी बन गई है. कल तक जो एक दूसरे के सुख दुःख में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे, वो आज एक दूसरे से दुरी बना रहे है और एक दूसरे को शक की नजरों से देख रहे है. इसी में कुछ नेता अपनी अपनी राजनीती को चमकाने में लगे हुए है. नेताओं का तो स्वाभाव हो सकता है, जनता की घरों में आग लगा कर उस पर खुद की रोटियाँ सेकना. परंतु इन बुद्धिजीवियों को इस से क्या लाभ होता होगा? सीधा सा जवाब है, भारत विरोधी ताकतों के हाथों इनका बिका होना. इसमें कोई दो राय नहीं है. अगर आज थोड़ा सा इंटरनेट का सहारा लेंगे, तो यह बात आपको बहुत अच्छे से समझ में आ जाएगा. क्योंकि आप जब भी इस धर्म विशेष समुदाय से सवाल करेंगे, तब यही बुद्धिजीवी इनके बचाव में आ जाएंगे और यह दलील देंगे कि यह अनपढ़ है. इसी वजह से इनमें कट्टरता भरी है. यह बात पूर्णतः सत्य भी है. परंतु यही बुद्धिजीवी इन्हे जाहिल बनाए भी रखना चाहते है. तभी तो इनका दुकान चलेगा. वरना इनका दुकान बंद हो जाएगा और वह धर्म विशेष भी शायद ऐसे ही जाहिल रह कर अपना घर जला कर ऐसे लोगों को रोटी सेकने देते है.
जबकि प्यार का पैगाम था.
नरफत में हैवान बन गया,
कल तक जो एक इंसान था.
नफरत की आँधी में जल गया,
जो प्यार का गुलिस्तान था.
इंसानियत की लाशें गिरी,
जो मरा वो हिंदुस्तान था.
वन्दे मातरम
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