विदेशी आक्रांताओं के द्वितीय कड़ी में हमने पुष्यमित्र शुंग के विषय में चर्चा किया, जिन्होंने भारत को यवनों (Indo Greek) के आक्रमण से बचाया. आज हम एक ऐसे सम्राट के विषय में चर्चा करेंगे, जिसने भारत वर्ष में से शकों (Indo-Scythians) के साम्राज्य को उखाड़ फेंका और भारत वर्ष पर 100 वर्ष तक राज्य किया. एक ऐसे सम्राट की, जिन्होंने विक्रम संवत का आरंभ किया. एक ऐसे सम्राट की, जिसे हमारे इतिहासकारों ने अत्यंत परिश्रम से ऐतिहासिक से काल्पनिक पात्र बना दिया है. एक ऐसे राजा की, जिनकी कहानियाँ आज भी विक्रम बैताल और सिंहासन बत्तीसी में सुनाये जाते है. हम चर्चा करेंगे भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमसेन की, जिन्हे आगे चल कर "विक्रमादित्य" कहा जाने लगा. विक्रमसेन की महानताऔर श्रेष्ठता समझने के लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त है कि "अगर किसी राजा को महान बतलाना हो, उसे नाम में विक्रमादित्य जोड़ दिया जाता था." इस प्रकार विक्रमादित्य नाम महानता का प्रतिक एक उपाधि बन गया और विक्रमादित्य एक काल्पनिक पात्र. आज विदेशी आक्रांताओं के तृतीय भाग में हम उन्ही विक्रमादित्य की चर्चा करेंगे.
शकों का भारत पर आक्रमण के कारण
300 से 200 ईसा पूर्व संपूर्ण यूरोप और रोम के साम्राज्य पर एक अत्यंत लड़ाकू जाति हूण का आतंक था. हूण जहाँ से गुजरते वहाँ ऐसा मार काट मचाते कि वहाँ की मिट्टी भी रक्त से लाल हो जाती थी. छोटे छोटे बच्चों को सबसे पहले निशाना बना कर वो सबसे पहले वहाँ के आने वाली पीढ़ी को ही खत्म कर देते थे. उसके बाद वहाँ की स्त्रियों और मर्दों का नरसंहार करते और लूट मचाते हुए अपने पीछे केवल सर्वनाश छोड़े जाते थे. हूण जाति केवल लूट पर ही आश्रित थी. हूणों ने चीन पर कई बार आक्रमण किया और उसे कई बार लूटा. हूणों के आक्रमण से तंग आकर चीन के हान वंश के शासकों ने चीन की सुरक्षा के लिए चीन की प्रसिद्ध दीवार को बनवाना आरंभ किया. इस के निर्माण के पश्चात हूणों का चीन पर आक्रमण असंभव हो गया. तब हूण एशिया की तरफ मुड़े और वहाँ के कुषाण जाति (Yuezhi) पर आक्रमण कर दिया. हूणों के आक्रमण के कारण कुषाणों ने पलायन करना आरंभ कर दिया और कुषाणों ने शकों (Scythians) पर आक्रमण किया. शकों ने कुषाणों के आक्रमण के कारण भारत की तरफ मुड़े और बैट्रिआ (Bactria आज का अफगानिस्तान) पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया. इस प्रकार हूणों के आक्रामकता के कारण शक भारत की ओर मुड़े.
शकों का उज्जैन पर आक्रमण
शक बैट्रिआ पर अपना अधिकार करने के बाद वो धीरे धीरे भारत की तरफ और आगे बढे एवं भारत के उत्तरी भागों पर भी अपना अधिकार कर लिया. इस क्रम में इन शकों ने उज्जैन पर भी आक्रमण कर दिया उज्जैन पर राजा महिन्द्रादित्य था, जिन्हे गंधर्वसेन के नाम से भी जाना जाता था, का शासन था. शकों ने उन्हें युद्ध में पराजित कर उनको बहुत अपमानित किया था. उसके बाद शक निर्भीक होकर अपने राज्य का भोग करने लगे.
वो इस बात से अनजान थे कि जिस महिन्द्रादित्य को अपमानित किया था, उसी के छोटे सुपुत्र ने इसका प्रतिशोध लेने का निश्चय किया था. किन्तु अपने छोटी आयु के कारण इनके पुत्र को उचित समय का प्रतीक्षा करना पड़ा. महिन्द्रादित्य के बड़े बेटे का नाम भर्तहरि था, जो मालवा के राजा थे. आगे चल कर भृतहरि ने सन्यास ले लिया और वहाँ के राजा बने उनके छोटे भाई और महिन्द्रादित्य के छोटे बेटे विक्रमसेन. वो अब व्यस्क हो चुके थे और युद्ध के सभी कलाओं में निपुण भी. विक्रमसेन जिस उचित समय की प्रतीक्षा में थे, वो अब आ चूका था. विक्रमसेन राजा बनते ही शकों पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया. जल्द ही अपने राज्य से शकों का समूल नाश कर कर दिया. इसी विजय के बाद उन्होंने विक्रम संवत का आरंभ किया और संपूर्ण भारत से शकों का नाश करने की प्रतिज्ञा किया.
भैरव सेना का निर्माण
महाराजा विक्रमसेन अपने राज्य से शकों का नाश करने के बाद जंगल की तरफ मुड़े और वहाँ के आदिवासियों को इकठ्ठा कर भैरव सेना का निर्माण किया. यह सेना उस समय की सबसे शक्तिशाली सेना मानी जाती थी. सम्पूर्ण भारत के शिव मंदिर इनका केंद्र होते थे. भैरव सेना अपने शत्रु के लिए अपने नाम के ही सामान साक्षात् कालभैरव का अवतार ही थी. यह युद्ध में केवल एक ही परिणाम विजय से कम इन्हे कुछ भी स्वीकार नहीं था. उस समय भारत वर्ष में मुख्यतः चार शक राजाओं का राज्य था. उज्जैन में महाकुंभ में सम्पूर्ण भैरव सेना ने स्नान किया और प्रचंड हुंकार करते हुए सभी शक राजाओं पर आक्रमण कर दिया. इस प्रकार भैरव सेना ने उन सभी राजाओं को बंदी बना कर महाराज विक्रमसेन के समक्ष प्रस्तुत किया और वहीं इन शक राजाओं को समाप्त कर दिया. इस प्रकार विक्रमसेन और उनकी भैरव सेना ने भारत वर्ष को शक विहीन कर दिया. तत्पश्चात विक्रमसेन विक्रमादित्य कहलाए. सम्राट विक्रमादित्य ने भारत वर्ष को विदेशी आक्रांताओ से मुक्त कर दिया था. अगर किविदन्तियों (ज्यादा साक्ष्य न होने के कारण किविदन्ति शब्द का प्रयोग कारण पड़ रहा है) की माने तो विक्रमादित्य का साम्राज्य केवल भारत उपमहाद्वीप में ही नहीं, परन्तु अरब, ईरान और मिश्र तक फैला हुआ था. अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जराहम किन्तोई ने अपनी पुस्तक सायर उल ओकुल (Sayal-Ul-Okul या Saya Ul Okul) में किया है, जो अभी इस्तांबुल के मखतान-ए-सुल्तानिया (Mekteb-i Sultani या Galatasaray Lisesi) नामक पुस्तकालय में है. उन्होंने कहा है कि "बड़े भाग्यशाली हैं वो लोग जिन्हे विक्रमादित्य के शासन के दौरान वहाँ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ." सम्पूर्ण विश्व के लोग महाराज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमसेन के नाम से परिचित थे. ज्योतिविरिधाभारण ग्रन्थ के अनुसार विक्रमादित्य ने रोम के राजा जुलिअस सीजर को बंदी बना कर उज्जैन नगरी में घुमाया था. जिसका उल्लेख रोमन साहित्य में भी मिलता है कि पूर्व से आई समुद्री लुटेरों ने जुलिअस सीजर का अपहरण कर लिया था.
प्रजा वत्सल
महाराजाधिराज विक्रमादित्य प्रतापी राजा होने के साथ साथ प्रजा वत्सल राजा भी थे. उहोंने भगवान राम के पदचिह्नों पर चलते हुए अपने राज्य में सही अर्थों रामराज्य स्थापित किया था. उनकी राज्य में प्रजा अत्यंत प्रसन्न और सुखी थी. सायल उल ओकुल में इसी बात का उल्लेख करते हुए अरबी कवि जराहम किन्तोई ने लिखा हैं कि "वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ट राजा थे, जो केवल प्रजा के भलाई के बारे में ही सोचते थे. उन्होंने उज्जैन से सूर्य के सामान तेजस्वी विद्वानों को यहाँ भेजा, जिस से शिक्षा का उजाला यहाँ भी फैल सके. इन विद्वानों ने हमे ईश्वर और सत्य से परिचय कराया. यह उनका हमारे ऊपर किया उपकार है." उन्ही कवि ने भैराव सेना का भी जिक्र करते हुए लिखा है कि "यह सेना अत्यंत प्रचंड थी. जिस शत्रु देश पर भैरव सेना आक्रमण करती, वहाँ केवल सर्वनाश ही लाती." यह भी कहा जाता है कि जब विक्रमसेन ने अपने राज्य को गणराज्य बना दिया था, तब प्रजा के कहने पर ही वो वहाँ के राज्य को पुनः संभाला और प्रजा ने ही उन्हें विक्रमादित्य कह कर पुकारा. विक्रमादित्य ही वो राजा थे, जिन्होंने अपने राज्य में सर्वप्रथम नवरत्न रखा था. इसी के बाद तुर्की राजा अकबर ने भी नवरत्न रखना शुरू किया था.
साहित्यों में वर्णन
राजधिराजमहाराज विक्रमादित्य को इतिहासकार केवल काल्पनिक पात्र ही मानते है. क्योंकि विक्रमादित्य नाम से कई राजा विक्रमादित्य के पश्चात् भविष्य में भी हुए है. इसके अलावा मुगल, अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों ने भारत के इस प्रतापी राजा को इतिहास के पन्नों से हटाने का बहुत अच्छा और बड़ा षड़यंत्र रचा था. किन्तु आज भी कई पुस्तकों में उनका उल्लेख मिलता है. अरबी कवि के पुस्तक की पहले ही बात कर चुके है. इसके अलावा कल्हण की राजतरंगिणी में भी विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है. नेपाली राज वंशावली में भी विक्रमादित्य के नेपाली राजा अंशु वर्मन के समय नेपाल यात्रा का उल्लेख मिलता है. इसके अलावा विक्रमादित्य का उल्लेख अन्य भाषा के साहित्यों में भी मिलता है. विक्रमादित्य का उल्लेख स्कन्द पुराण और भविष्य पुराण में सविस्तार वर्णन मिलता है. बैताल पचीसी और सिंहासन बत्तीसी की कहानियाँ सम्राट विक्रमादित्य से पर ही आधारित है. इसके अलावा जैन साहित्य में भी सम्राट विक्रमादित्य का उल्लेख मिलता है.
यह भारत वर्ष का दुर्भाग्य ही है कि जिस राजा ने भारत वर्ष पर 100 वर्षों तक राज्य किया, उसके बारे में हमारे इतिहास में पढ़ाया नहीं जाता. इतने प्रतापी राजा जिनका साम्राज्य अरब और मिश्र तक फैला था, उनके बारे में न पढ़ा कर हमें मुगल साम्राज्य के बारे में पढ़ाया जाता है और उसका महिमामंडन किया जाता है. अंग्रेजी में एक कहावत है कि "When you can't Convince, Then confuse." यही विक्रमादित्य के साथ भी वामपंथी इतिहासकारों ने किया. विक्रमादित्य के बाद भी कई राजाओं ने विक्रमादित्य की उपाधि को धारण किया था. बस उन्ही राजाओं के साथ इस विक्रमादित्य के इतिहास को मिला कर शंका उत्पन्न कर दिया और इस प्रकार एक महान राजा को षड्यंत्र कर एक काल्पनिक पात्र बना दिया. इसी वजह से मैं बार बार यह कहता हूँ कि भारत देश के इतिहास को साक्ष्यों के साथ पुनः लिखने की आवश्यकता है. इसके लिए सभी समकालीन इतिहास के लेखकों, शिलालेखों, अन्य धर्म के साहित्यों, उसमें भी विशेषतः जैन साहित्य की मदद अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा. इस से हमारा स्वर्णिम इतिहास हमारे और दुनिया के सामने आ पाएगा और हमारा परिचय भी हमारे स्वर्णिम इतिहास से संभव हो सकेगा.
जय हिन्द
वन्देमातरम
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