अंडरवर्ल्ड और बॉलीवुड का गहरा रिश्ता है. इस रिश्ते की शुरुआत किया था मुंबई के पहले और सबसे साफ सुथरे डॉन कहे जाने वाले हाजी मस्तान मिर्जा ने. 70 की दशक ने हाजी मस्तान में बॉलीवुड में फिल्मो पर पैसा लगाना शुरू किया. तभी से अंडरवर्ल्ड के किरदारों पर आधारित फिल्मे बनने लगी. ऐसी फिल्मों के शायद सबसे पहली फिल्म थी अमिताभ बच्चन की जंजीर, जिसमें प्राण का किरदार शेरखान उस समय के डॉन करीम लाला उर्फ अब्दुल करीम शेर खान पर आधारित था. हाजी मस्तान के जाने के बाद जब दाऊद अंडरवर्ल्ड का डॉन बना, तब उसने बॉलीवुड के साथ अंडरवर्ल्ड के रिश्तों और नियमों को पूरी तरह से बदल दिया. पहले जहा बॉलीवुड के फिल्मों में पैसे लगाए जाते थे, वही अब निर्माता, निर्देशक और फिल्मी सितारों से फिरौती माँगना शुरू हुआ. पैसा नहीं देने पर हत्याएँ भी हुई. यह तक की अंडरवर्ल्ड की मदद से फिल्मों में काम मिलना काम छीनना तक शुरू हुआ. इसके बाद शुरू हुआ बॉलीवुड का इस्लामी करन. तरह तरह की फिल्में बना कर मुसलमानों को अच्छा दिखाने की कोशिश करने लगे.
अब्दुल के जीवन पर आधारित फिल्में तो बनी, परंतु वो फिल्में AJP अब्दुल कलाम पर या अब्दुल हामिद पर नहीं, बल्कि गुजरात का "दाऊद इब्राहिम", "गुजरात का डॉन" कहलाने वाले कुख्यात अपराधी अब्दुल लतीफ पर बनी. फिल्म का नाम था रईस. अभिनेता थे शाहरुख खान. उसी फिम्ल का एक संवाद बहुत मशहूर हुआ था, "बनिए का दिमाग, मिया भाई की डेरिंग." वही फिल्म जिसमें रईस की माँ उस से कहती है कि "कोई धंधा बड़ा या छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई मजहब नहीं होता. जब तक उस धंधे से किसी का नुकसान न हो." वही फिल्म जिसमें रईस को हथियार में मामले में गलती से फसाया जाता है और वही रईस जो अपने लोगों के लिए बहुत बड़े बड़े सपने लेकर जी रहा होता है, उसका एनकाउंटर एक मजूमदार नामक पुलिस अधिकारी उसी जगह कर देता है जहाँ उसने अपने लोगों के लिए कुछ करने का सपना देखा होता है. इसमें फिल्म में मजूमदार साहब ही खलनायक लगते है और रईस नायक लगता है. आइये जानते है उस फिल्म के रईस और असल दुनिया के अब्दुल लतीफ के बारे में.
प्रारंभिक जीवन
अब्दुल लतीफ का जन्म अहमदाबाद के कालूपुर में 24 अक्टूबर 1951 को हुआ था. कालूपुर एक मुस्लिम बहुल्य इलाका है. अब्दुल लतीफ का बचपन काफी गरीबी में बीता. उसके पापा तम्बाकू की दुकान लगते थे. लतीफ भी वही उनके साथ बैठता था. बदले में उसे दो रुपये मिलता था. अब्दुल लतीफ अपने पापा से और पैसे मांगता था. इसी बात को लेकर बाप बेटे में अक्सर झगड़ा होता था. 20 वर्ष की उम्र में ही लतीफ की शादी हो गई. इसके बाद लतीफ की जरूरतें बढ़ी और उसी के साथ साथ उसके पापा के साथ झगडे भी. बाद में लतीफ ने अल्लाह रक्खा के पास काम करने लगा. अल्लाह रक्खा जुड़े के गैर कानूनी अड्डे चलता था. लतीफ बहुत अचे पत्ते खेलता था. जल्द ही अल्लाह रक्खा के विरोधी मंजूर अली की नजर लतीफ पर पड़ी. और मंजूर अली ने लतीफ को अपने साथ रख लिया. 1977-78 के समय लतीफ को 30 रुपये महीना मिलता था. अहमदाबाद में ही एक ईदगाह नाम का एक स्थान है. लतीफ को उसका सुपरवाइजर बनाया गया. दो वर्ष तक सब कुछ सही चला. पर लतीफ पर एक पैसों की चोरी का इल्जाम लगा और लतीफ ने मंजूर अली को छोड़ कर अपना अलग काम शुरू कर दिया.
अवैध शराब बेचने से शुरुआत करना
गुजरात एक ड्राई स्टेट है. मतलब यहाँ शराब पर पाबन्दी है. परंतु अवैध से रूप से आज भी गुजरात में शराब मिलता है और अवैध रूप से शराब बेचने में बहुत मुनाफा होता है. लतीफ ने अवैध रूप से शराब बेचने का काम शुरू किया. वह राजस्थान से शराब लेकर अत और अहमदाबाद में बेच देता. धीरे धीरे उसका कद बढ़ा. और लतीफ शराब के ट्रक मंगवाने लगा. उस समय एक ट्रक को खली करने पर 1,50,000 रुपये मिलते थे. लतीफ के ऐसे 10 ट्रक आते थे. लतीफ की कमाई करोड़ो में पहुँच गई. ऐसा कहते है कि लतीफ के शराब कि खेप पुलिस के पीसीआर वैन में खुद पुलिस वाले अपनी निगरानी में लेकर आते थे. कारण था लतीफ के द्वारा पुलिस वालों को हप्ता पहुँचाना. लतीफ इंस्पेक्टर पर के अधिकारियों को महँगे तौफा देता. जैसे कि बुलेट और उस समय के मशहूर बजाज स्कूटर. हालाँकि यह सिर्फ छोटे रैंक के अधिकारियों तक ही सिमित था. बड़े रैंक के अधिकारी लतीफ को किसी गिनती में नहीं रखते थे. इसी के साथ साथ लतीफ ने हप्ता वसूली, फिरौती वसूलना भी शुरू कर दिया था. कहते है कि गौतम अडानी उस समय अपने शुरुआती दौर में थे. लतीफ ने उनका भी अपहरण कर के उनसे फिरौती में एक करोड़ रुपये लिया था.
दाऊद से दुश्मनी
मुंबई में उस समय पठान गैंग का राज था और उसका आका था करीम लाला. हालाँकि उसकी बढ़ती उम्र की वजह से उसका पूरा कारोबार उसका भतीजा अमीरजदा देखता था. पठान गैंग की सल्तनत को चुनौती देने का काम किया दो भाइयों ने. बड़े भाई का नाम था सबीर इब्राहिम कासकर और छोटे का नाम था दाऊद इब्राहिम कासकर. दोनों गैंगो के बीच मुंबई पर वर्चस्व के लिए खुनी अदावत शुरू हुई. जिसे मुंबई पुलिस ने पहले बार गैंगवॉर का नाम दिया. 12 फरवरी 1981 के दिन एक पेट्रोल पंप पर सबुर इब्राहिम की हत्या कर दी गई. नाम सामने आया पठान गैंग के अजीमजदा का. अजीमजदा भाग कर अहमदाबाद आ गया. वहाँ पर पठान गैंग के ही अमिन खान, नवाब खान, आलम खान और अमीरजदा पहली बार लतीफ से मिले. इन सबको लतीफ ने अपने यहाँ पर ही पनाह दिया था. उसी समय दाऊद भी अहमदाबाद के साबरमती जेल में ही था. और उसे किसी मुकदमे की वजह से सुनवाई के लिए वड़ोदरा ले जाना होता था. दाऊद पुलिस वालों का बहुत ख्याल रखता था. इसी वजह से अहमदाबाद से वड़ोदरा जाते समय एक निश्चित होटल पर दाऊद रुक कर खाना खाता था और आराम करता था. लतीफ को इस बारे में पूरी जानकारी मिली. पठान गैंग से दोस्ती की वजह से लतीफ उस समय दाऊद को अपना दुश्मन मानता था और उससे बड़ा भी बनना था. इस तरह से दाऊद को मारने की योजना बन गई.
योजना यह थी की साबरमती जेल से वड़ोदरा जाते समय साबरमती नदी पर एक पुल पड़ता है, जिसे जमालपुर ब्रिज कहते है. वहाँ बहुत ट्रैफिक होता है. इसी वजह से वहाँ गाड़िया धीरे धीरे चलती है. वही पर दाऊद को मारने का तय हुआ. वहीं पर जब दाऊद को ले जाने वाली पुलिस की गाड़ी आई, तो लतीफ ने अपने आदमियों के साथ दाऊद पर हमला कर दिया. इस हमले में दाऊद बच गया, परंतु जब दाऊद को पता चला कि इसके पीछे अब्दुल लतीफ का हाथ है तो दाऊद ने लतीफ पर पलटवार किया. दाऊद के शार्प शूटर डेविड परदेशी ने मुंबई के सेशन कोर्ट में अमीरजदा को मौत के घाट उतर दिया. यह सीधा हमला अब्दुल लतीफ पर था. बदले में अब्दुल लतीफ के शूटर शरीफ खान ने डेविड परदेशी को अहमदाबद में ही मार गिराया. इस तरह से दोनों के बीच में खूनी लड़ाई शुरू हो गई. दाऊद ने लतीफ के कई आदमियों को मार दिया. बदले में लतीफ ने दाऊद के कई आदमियों को मार दिया , खास कर गुजरात के अंदर के.
रॉबिनहुड की छवि
पठान गैंग के दो शूटर शरीफ खान और रसूल खान की वजह से लतीफ की ताक़त बढ़ती जा रही थी. वहीं दाऊद के साथ सीधा टक्कर लेने कि वजह से लतीफ का कद बढ़ता जा रहा था. परंतु लतीफ अपने इलाके के लोगों की मदद करता, उन पर पैसे लुटाता और उन लोगों को काम देता.. काम के नाम पर अपनी की गैर कानूनी धंधे में कही लगा देता. इन्ही सब करने की वजह से लतीफ की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि लतीफ ने 1987 में साबरमती जेल में रहते हुए अमदाबाद म्युनिसिपल के चुनाव को लड़ने का फैसला किया और पाँच सीट दरियापुर, कालूपुर, शाहपुर, जमालपुर और राखियाल से चुनाव लड़ा. और इन पांचो जगह से विजयी रहा. उस समय लतीफ के कद का अहमदाबाद में कोई दूसरा नहीं था. 1988 तक लतीफ को गुजरात के डॉन का नाम मिल चूका था.
दाऊद से दोस्ती और पहले से ज्यादा खूंखार बनना
लतीफ का कद तो बढ़ता ही जा रहा था. परंतु लतीफ की वजह से दाऊद को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा था. दाऊद इस बात को समझ चूका था कि लतीफ को साथ लिए बिना गुजरात में वह अपना कारोबार नहीं कर सकता. इसी वजह दाऊद ने नवंबर 1989 में लतीफ को दुबई आने का न्योता दिया. लतीफ भी अपने गुर्गे को साथ लेकर दुबई पहुँच गया. वहाँ पर एक मौलवी ने दोनों को कुरान पर हाथ रख कर कसम खिलवाया कि अब दोनों आपस मि कभी दुश्मनी नहीं करेंगे. इस तरह से दाऊद और लतीफ दोस्त बन गए. इसके बाद दाऊद ने लतीफ को शराब की हेराफेरी को छोड़ कर सोने की तस्करी में आने का न्यौता दिया. अब लतीफ दाऊद के दाहिने हाथ मम्मु मिया पंजू मिया के साथ मिल कर कर काम करने लगा. अब लतीफ भी सोने की तस्करी में शामिल हो गया. सोने की तस्करी में शामिल होने के बाद लतीफ पहले से ज्यादा ताक़तवर और ज्यादा खतरनाक हो गया. इसी बीच लतीफ की दुश्मनी मुंबई के ही एक स्मगलर शाहज़दा से हो जाती है. शाहज़दा पर गुजरात के सबसे बड़े शराब माफिया हंसराज त्रिवेदी का हाथ था. एक बार हंसराज त्रिवेदी अपने दोस्तों के साथ अहमदाबाद के ओढव में स्थित राधिका जिमखाना में आया हुआ था. लतीफ ने अपने शूटर को हंसराज को मारने के लिए भेज दिया. लतीफ के शूटर ने हंसराज को नहीं देखा था. लाख कोशिश करने के बाद भी वह हंसराज को नहीं पहचान पाया. उसने लतीफ को फ़ोन कर पूरी बात बताया. लतीफ ने तुरंत उस टेबल पर बैठे सभी को मार देने का आदेश दिया. आदेश मिलते ही उस शूटर ने उस टेबल पर बैठे सभी लोगों को AK-47 से भून दिया. गुजरात में AK-47 का उपयोग और ऊपर से एक ही टेबल पर 9 लोगों की मौत से पूरा गुजरात हिल गया और पहली बात लतीफ का नाम गुजरात के बहार गया.
इस कांड के बाद से सरकार और प्रशासन पर सवाल उठने लगे. राज्य सभा के पूर्व सदस्य रऊफ वली उल्ला ने सभी को मना कर दिया कि कोई भी लतीफ की मदद नहीं करेगा. कोई भी से मतलब था कोई भी लतीफ को राजनैतिक संरक्षण नहीं देगा. साथ ही साथ रऊफ वली उल्ला ने उस समय के तत्कालीन मुख्य मंत्री चिमनभाई पटेल पर लतीफ को राजनैतिक संरक्षण देने का आरोप लगाया. चिमनभाई को सफाई देना पड़ा. दाऊद के कहने पर लतीफ दुबई भाग गया.
दुबई से कराँची तक का सफर
दुबई से लतीफ ने तब के कांग्रेस के गुजरात कांग्रेस युवा प्रमुख हसन लाला से इस केस को रफा दफा करने को कहा. तब हसन लाला ने लतीफ को बताया की रऊफ उल्ला की वजह से कोई भी उसकी मदद नहीं कर रहा. अगर किसी भी तरह रऊफ उल्ला खामोश हो जाएं तो वह लतीफ की मदद कर सकते है. इस पर लतीफ ने दुबई से बैठे बैठे अहमदाबाद में दिन दहाड़े रऊफ उल्ला की हत्या करवा दिया. इस से सरकार और प्रशासन का सर दर्द और बढ़ गया. चारो तरफ से सरकार की भारी आलोचना हुई. इस कांड के बाद लतीफ के केस को सीबीआई को सौप दिया गया. नीरज कुमार जो बाद में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर भी रहे, वहीं इस केस को देख रहे थे. तब खबर आई की लतीफ दुबई से कराँची चला गया. कराँची में लतीफ तौफीक जलियावाला के यहाँ पर रहता था. वह भी सोने की तस्करी से ही जुड़ा था.
1993 बॉम ब्लास्ट
6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की आग मुंबई तक पहुँच गई. वहाँ पर बहुत भीषण दंगे हुए. उन दंगो में मुसलमानों को बहुत नुकसान हुआ. खास कर के तस्कर टाइगर मेनन का. इन सभी ने इसका बदला लेने के लिए मुंबई में बम धमाके करने का सोचा. उस समय पोरबंदर से AK-56 और RDX की खेप दाऊद के कहने पर लतीफ की निगरानी में मुंबई पहुंचाया गया. कहा जाता है कि मुंबई बम ब्लास्ट कि खबर देख कर दाऊद, लतीफ और टाइगर ने एक साथ पार्टी किया. मुंबई बम ब्लास्ट केस में नाम आने के बाद सभी ऐस बात से निश्चिन्त हो चुके थे कि अब लतीफ भारत नहीं आने वाला. अब वह हमेशा के लिए पाकिस्तान में ही रहेगा.
दिल्ही से धरपकड़
कुछ समय बाद दो व्यापारियों ने पुलिस स्टेशन में जाकर शिकायत दर्ज करवाया कि किसी ने फोन पर फिरौती की मांग कर रहा है. पैसे ना देने की सूरत में जान से मारने की धमकी दे रहा है और अपना नाम अब्दुल लतीफ बता रहा है. लतीफ का नाम सुनते ही सभी के कण खड़े हो गए. सीबीआई को सुचना दे दिया गया. क्योंकि उस समय यह केस सीबीआई के साथ में था. नीरज कुमार आए और बड़ी मेहनत के बाद उन्हें पता चला की यह फोन दिल्ली के चूड़ीवाला विस्तार से आ रहा है. दरअसल लतीफ अहमदाबाद में बड़े शान से रहता था. अहमदाबाद में उसका अपना एक खौफ था. लोग झुक कर उसे सलाम करते थे. जबकि कराँची में लतीफ को सभी दाऊद का आदमी के नाम से जानते थे. मतलब कोई खास इज्जत नहीं थी. यही कारण था कि लतीफ वापस भारत आया. लतीफ को गिरफ़्तारी कि पूरी तयारी कर लिया गया. पुलिस सादे कपड़ो में उस टेलीफोन बूथ के पास छुप गई जहाँ से उन व्यापारियों को फोन अत था. वापस से उसी बूथ से फोन तो गया पर इस बार फोन उदयपुर लगा. किसी ने ध्यान से फोन नहीं सुना क्योंकि यहाँ सभी पुलिस वाले अहमदाबाद फोन करने का इंतजार कर रहे थे. परंतु गुजरात पुलिस के एक अधिकारी ने उसके बात करने के एक आदत से पहचान लिया कि यही लतीफ है. लतीफ बात करते समय ऐसा क्या कि जगह अइसा क्या कहता था और यही शब्द बार बार उपयोग करता था. इस पर सभी पुलिस वालों ने जाकर लतीफ को पकड़ लिया और उसे लगभग घसीट कर उस गली से बहार लेकर आए. बाद में लतीफ को अहमदाबाद ले जाया गया और वहाँ से उसे साबरमती जेल में भेज दिया.
जाँच के लिए बहार ले जाते समय एनकाउंटर
साबरमती जेल में रहते हुए भी लतीफ के काम जेल से ही चालू था. फिरौती, हफ्ता वसूली सब जेल से ही चल रहा था. उसी समय जुहापुरा के एक बिल्डर सागीर अहमद की हत्या लतीफ ने जेल में रहते हुए ही करवा दिया था. यह सब अगले दो वर्षो तक चला. बाद में 29 नवंबर 1997 को ज्यादा जाँच के लिए बहार ले जाते समय लतीफ का अहमदाबाद के ही नरोडा रेलवे क्रासिंग के पास लतीफ का एनकाउंटर कर दिया. पुलिस यह बताया कि लतीफ को ज्यादा जाँच के लिए बाहर ले जा रहे थे. लतीफ ने पेशाब करने के बहाने गाड़ी रुकवाई और वहाँ से भागने का प्रयास किया. पुलिस को मजबूरन गोली चलना पड़ा और लतीफ मारा गया. लतीफ जैसा गुजरात में दूसरा कोई डॉन नहीं हुआ.
यह थी डॉन अब्दुल लतीफ के असल जिंदगी की कहानी. शहरुख खान ने क्या सोच कर और किस मकसद से लतीफ को सिर्फ तस्कर बताया यह तो वहीं बताए सकते है. परंतु बॉलीवुड को अपराधियों का ऐसे महिमा मंडन नहीं करना चाहिए. अगर फिल्म बनना ही है तो उसके असली कहानी बताओ जिस से लोगों को पता चले कि वो किस तरह का अपराधी था और उसने कैसे कैसे अपराध किये थे.
जय हिन्द
वंदेमातरम
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