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किसान आंदोलन: राजनैतिक दलों के लिए एक अवसर?

इस से पहले के एक लेख में हमने नए कृषि कानून के बारे में चर्चा किया था, जिसमें हमने केवल उस कानून, उस कानून के प्रावधान और उस कानून के प्रावधान से संबंधित समस्याओं और उनके उचित समाधान के बारे में बात किया था. आज हम थोड़ा सा बात करेंगें, इस किसान आंदोलन के नेताओं की मांगों के बारे में और साथ ही साथ इसी किसान आंदोलन में खुद के एक और मौका ढूँढने वाले राजनैतिक दलों के बारे में. साथ में यह भी समझने की कोशिश करेंगें कि "क्या यह आंदोलन किसानो का ही आंदोलन है या किसी राजनैतिक दल के इशारे पर किया जा रहा है, ताकि वह इस से अपना कोई स्वार्थ सिद्ध कर सके."

किसान आंदोलन के नेताओं की मांग
किसान आंदोलन के नेता बस इन तीनों कानून को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. वो इन कानून में किसी भी तरह के सुधार कर के लागु करने के पक्ष में नहीं हैं. वो सभी जिद्द पर अड़े हुए हैं कि बस यह कानून रद्द करो और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP:- Minimum Support Price) पर कानून बनाओ. कही न कही इस आंदोलन का मुख्या मुद्दा भी MSP ही है. MSP अर्थात किसी भी फसल को खरीदने का न्यूनतम मूल्य, जो किसान को APMC में मिलता है. नए कृषि कानून में MSP का कोई जिक्र नहीं था, जिसके बाद से यह अफवाहें उड़ने लगी कि "वर्तमान सरकार MSP को खत्म कर दिया है. इसी वजह से सरकार ने कोरोना महामारी के आपदा के समय को अवसर में बदल कर, अपने दिए नारे "आपदा को अवसर में बदलें" का अच्छे से पालन किया है और इस कृषि बिल को जल्दी जल्दी दोनों सदनों में पास करवा दिया गया है." एक हद तक तो यह बात सही ही है. परन्तु यह अर्ध सत्य है और अर्ध सत्य हमेशा खतरनाक होता है.
इस कानून में MSP का कोई जिक्र नहीं है, यह सत्य है. परन्तु इस कानून में MSP को खत्म करने का भी कोई जिक्र नहीं है. सरकारी प्रवक्ताओं ने यही दलील भी दिया. बाद में प्रधानमंत्री जी ने स्वयं भी कहा कि "MSP था, MSP है और MSP रहेगा." परन्तु यह भी सत्य है कि भारत देश की स्वतंत्रता से लेकर आज तक किसी भी सरकार ने कभी MSP को कानून नहीं बनाया. MSP पर हमेशा से ही एक नोटिफिकेशन आता रहा है. ऐसा भी नहीं है की सभी किसानों को MSP में निर्धारित मूल्य ही मिलता है. बल्कि कटु सत्य यह है कि "MSP का लाभ भारत के केवल 6% किसानों को ही मिल पाता है! वहीं पंजाब और हरियाणा के 80% किसानों को MSP का लाभ मिलता है. यही कारण है कि इस किसान आंदोलन में ज्यादातर आंदोलनकारी किसान इन्ही दो राज्यों से है. पंजाब और हरियाणा के किसान भारत के दूसरे राज्यों के किसानों की तरह बेचारे और गरीब नहीं है, बल्कि यह उनके अपेक्षा में समृद्ध है और इन्ही किसानों में जिनके पास अधिक जमीन है, वह उस से भी ज्यादा समृद्ध है. तभी यहाँ के किसान ट्रेक्टर लेकर आंदोलन करने आ सकता है और यह आंदोलन अन्य किसान आंदोलनों जैसा न होकर थोड़ा अलग आंदोलन लगा. जहाँ किसानों ने पिज्जा का लंगर भी लगाया. इस किसान आंदोलन में किसी खालिस्तानी संगठन के द्वारा पैसे से समर्थन प्राप्त होने की आशंका जताई जा रही है, जिस पर जाँच चल रहा है. किन्तु पंजाब के किसान समृद्ध है, इस बात से भी कोई इंकार नहीं कर सकता है. तभी इस किसान आंदोलन के ट्रेक्टर परेड में अत्यंत उन्नत किस्म के और महँगे ट्रेक्टर भी दिखे. 26 जनवरी के ट्रेक्टर परेड के बाद आज किसानों द्वारा रेल रोको आंदोलन चलाया जा रहा है. अभी देश कोरोना महामारी की वजह से आई आर्थिक तंगी से बहार नहीं निकल पाया है. ऐसे में रेल रोको आंदोलन के कारण जो देश का आर्थिक नुकसान होगा, उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? रेल रोको आंदोलन करने से केवल साधारण जनता ही उसमें पिसेगी और वही तो हमेशा से पिसती आ रही है. इतिहास गवाह रहा है कि ऐसे आंदोलनों से कुछ नेता सामने उभर कर आए और फिर बाद में वह राजनीती में उतरे. कुछ बदलवा की उम्मीद से जनता ने उन्हें चुना भी, परंतु अगर कही कुछ बदलाव आया तो केवल उनके तेवरों में बाकि कही भी नहीं.

किसान आंदोलन का चेहरा बने किसान नेता राकेश टिकैत भी कही इसी का एक और उदहारण तो बनाने नहीं जा रहे? किसान नेता राकेश टिकैत अति से भी अति समृद्ध है. अगर मीडिया रिपोर्ट की माने तो राकेश टिकैत के पास लगभग 80 करोड़ की संपत्ति की है. वहीं राकेश टिकैत के चुनाव नामांकन के दौरान दिए गए अपने संपत्ति की जानकारी के अनुसार वो 4 करोड़ 25 लाख की संपत्ति के मालिक है. राकेश टिकैत अब बंगाल में जाकर के यह आंदोलन वहाँ के किसानों के लिए करना चाहते है. बंगाल में विधानसभा के चुनाव होने वाले है. इस बात को ध्यान में रखते हुए ऐसे कयास लगाए जा रहे है कि इस आंदोलन को राकेश टिकैत अब राजनैतिक रंग देकर अपने डूबे हुए राजनैतिक नैया को पार लगाने की कोशिश कर रहे हैं. राकेश टिकैत पहले भी दो बार चुनाव लड़ चुके है. ऐसे में यह सवाल तो उठेगा ही तो क्या वाकई में यह आंदोलन राजनैतिक दलों और कुछ नेताओं के लिए एक अवसर हैं?

किसान आंदोलन: राजनैतिक दलों के लिए एक अवसर?
यह बात केवल राकेश टिकैत तक ही सिमित नहीं रह जाती है. बल्कि इसके दायरे में हर एक राजनैतिक दल आ जाते है. जिनमें मुख्यतः पिछले सात वर्षों से खुद के लिए जमीन तलाश रही कांग्रेस पार्टी, उनके युवराज राहुल गाँधी, उनकी नेता प्रियंका गाँधी, खुद के जन्म से ही अपनी पार्टी को एक क्षेत्रीय पार्टी से एक राष्ट्रीय पार्टी की पहचान दिलाने की कोशिश करने में जुटी आम आदमी पार्टी इसे एक अवसर की तरह देख रहे हैं. तभी आज यह सभी किसानो के हितैषी बनाने का ढोंग कर रहे है. अन्यथा यह वही कांग्रेस पार्टी है, जिसने 1998 में मध्यप्रदेश के मुलताई में किसानों पर गोलियाँ भी चलवाया था. उस गोलीबारी में 24 किसानों को अपने जान से हाथ धोना पड़ा था. यह वही पार्टी है जो खुद कभी इन कृषि कानून को लागु करना चाहती थी. आज अगर MSP पर कानून बनाने की यह वकालत कर रहे है, किन्तु जब ये सत्ता में थे तब इन्होंने खुद यह कानून कभी नहीं बनाया. महाराष्ट्र में विलाशराव देशमुख की सरकार के कार्यकाल के दौरान इन्होंने खुद कुछ ऐसे नए कानून बनाया था, जो आज के नए कृषि कानून के जैसा ही है. उसमें प्राइवेट मंडियों को भी बनाया गया तथा जो इन मंडियों में नहीं जाना चाहते थे उनके लिए किसानों से सीधी फसल खरीदने के लाइसेंस भी बाँटे गए. आज इन प्राइवेट मंडियों की संख्या 18 है और 1100 लाइसेंस अब तक बाँटे जा चुके है. इतना सब करने के बाद भी महाराष्ट्र के APMC में ही 75% खरीद फरोख्त हुआ जो 48000 करोड़ का है. वही प्राइवेट मंडियों और 1100 बाँटे गए लाइसेंस के हिस्से में 25% की हिस्सेदारी रही, जो 11000 करोड़ का था. पंजाब में ही अभी नए कृषि कानून के तहत अगर को कोई किसान किसी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में जानबूझ कर उसके तय नियमों को तोड़ता है, तो उसमें किसान को 5 वर्षों के जेल तक का प्रावधान है. वही नए कृषि कानून में यह प्रावधान है कि किसानों को केवल एडवांस में लिए पैसों को ही वापस करना होगा. किसान सच न जान जाए इसके लिए जोर जोर से झूठ का प्रचार करते रहे. जनता भोली है. वो सच जानने की कोशिश भी नहीं करेगी और सच जाने बिना ही इन राजनैतिक दलों के चल में फंस जाएगी. तभी आजादी के बाद से चल रहा गरीबी हटाओ का चुनावी नारा आज भी चल रहा है. गरीबी तो अभी तब नहीं हटा पाएं, किन्तु आपातकाल के दौरान गरीबों को जरूर हटा दिया था. आम आदमी पार्टी का भी वही हाल है. उनके तो चुनावी सभा में एक किसान ने आत्महत्या कर लिया था. तब किसी ने न ही उस किसान को रोकने की कोशिश किया और न ही उस सभा को रोका.

भारत देश में हर एक विरोध पक्ष में बैठे हर एक पार्टी अपना बस यही कर्त्तव्य मानती है कि सत्ता पक्ष के किसी भी प्रस्ताव का बस विरोध करो. वो किसानों के लिए, देश की जनता के लिए अच्छा है या नहीं, अगर उसमें कोई कमियाँ है, तो उनमें कौन कौन से सुधार कर के उसे लागु किया जाए, जिस से देश के किसान देश की जनता और देश का भला हो, इस पर चर्चा कभी नहीं करते. काश भारत के नेता ऐसा करते, तब आज भारत का किसान भी खुशहाल होता और भारत और भी मजबूत स्थिति में होता. परंतु अपनी राजनैतिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए किए जाने वाले आंदोलन आज किसानों और जनता का मजाक बनाने का साधन भर रहे गए है. इस बात को इस देश की जनता को समझना होगा. तभी यह नेता झूठ और प्रपंच को छोड़ काम पर ध्यान देंगे और अपना काम दिखा कर वोट माँगेंगे. हमारे देश के किसान को समृद्ध अतिसमृद्ध होना ही चाहिए और उसके दिशा में हर संभव कदम उठाए जाने चाहिए और उसके लिए बिना डरे प्रयोग किया जाना चाहिए. तभी गरीब किसानों की स्थित में सुधार संभव है.

जय हिन्द
वन्दे मातरम


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