आज छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती है. आज ही के दिन उनका जन्म 1630 में हुआ था. शिवाजी महाराज एक कुशल शासक, योग्य सेनापति, राजनीति और कूटनीति में निपुण, गोरिल्ला लड़ाई में धुरंधर थे. शिवाजी महाराज भारतीय शासक और मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे. शिवाजी महाराज ने मुगल आक्रान्ताओं से लोहा लिया और उनके विरुद्ध जाकर, युद्ध कर और उन्हें हरा कर अपना एक अलग साम्राज्य बनाया. शिवाजी महाराज ने स्वराज का सपना देखा और हिन्दू साम्राज्य का प्रतिक भगवे को अपना कर सम्पूर्ण भारत वर्ष की भूमि को भगवामय करने का सपना देखा, जिसे उन्होंने काफी हद तक पूरा भी किया. किन्तु शिवाजी राजे का केवल इतना ही परिचय है? क्या युद्ध, कूटनीति, भगवा, स्वराज से अलग शिवाजी राजे का कोई और व्यक्तित्व नहीं है? हम आज की चर्चा शिवाजी राजे के कुछ ऐसी बातों पर करेंगे, जिससे शायद बहुत ही कम लोग परिचित है. अगर परिचित भी है, तो वो उस पर बात नहीं करते.
मातृभक्त
शिवाजी राजे की माता का नाम जीजाबाई था. राजे का पालन पोषण उनकी माता श्री ने अकेले ही किया था. साथ ही साथ राजे की पहली गुरु भी वही बनी. जिजाऊ साहेब राजे को बचपन से ही भगवान राम, कृष्णा महाभारत इत्यादि की कहानियाँ सुनाया करती थी. राजे को यह कहानियाँ बहुत पसंद भी थी. राजे की व्यक्तित्व पर इनकी माता श्री का बहुत ही गहरा प्रभाव था. उनके व्यक्तित्व में जिजाऊ साहेब की छवि दिखती भी थी. जिजाऊ साहेब राजे को रामायण और महाभारत को पढ़ कर सुनाया करती थी. राजे उसे बड़े ध्यान से सुनते एवं उसका अध्ययन करते. जिजाऊ साहेब उन्हें कूटनीति के बारे में भी बताती थी. धीरे धीरे वो सभी गुणों में निपुण होते गए. राजे के मातृभक्ति ने ही उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज बनाया, ऐसा कहना गलत नहीं होगा. क्योंकि राजे जिजाऊ साहेब की हर बात मानते थे और उनकी किसी बात को आज तक नहीं टाला. राजे को पराधीनता से मुक्ति और स्वराज पाने की प्रेरणा जिजाऊ साहेब की कहानियों और उनके मार्गदर्शन की वजह से मिली. यह जिजाऊ साहेब का सपना भी था. राजे केवल अपनी माँ के सपने को पूरा करने 18 वर्ष की आयु में ही निकल पड़े और उसके सपने को काफी हद तक पूरा कर दिया. सिंहगढ़ (कोंढाणा) किले को वापस लेने की जिद्द जिजाऊ साहेब की ही थी.
गुरुभक्त
आज तक जितने भी महान व्यक्ति इस धरती पर हुए है, उनमें उनके गुरुओ को महत्वपूर्ण योगदान रहा है. जैसे भगवान वेद व्यास के गुरु महर्षि वासुदेव, महर्षि अगस्त्य के गुरु भगवान शिव, परशुराम जी के गुरु भगवान शिव, हनुमान जी के गुरु सूर्यदेव, लव कुश के गुरु भगवान वाल्मीकि, भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण के गुरु महर्षि परशुराम, अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य, चन्द्रगुप्त मौर्या और सम्राट अशोक के गुरु चाणक्य इत्यादि प्रसिद्ध उदाहरण है. वैसे ही उनकी माता के बाद राजे के गुरु बने समर्थ गुरु स्वामी रामदास. उनके गुरु ने राजे को निर्भीक, अन्याय से जूझने का सामर्थ्य और संगठनात्मक योगदान की शिक्षा दी. यह उनके गुरु का प्रताप ही था कि राजे निडर, साहसी और कुशल राजा बने. राजे बहुत बड़े गुरु भक्त थे. राजे ने अपने गुरु के चरण पादुका को रख कर शासन किया और अपने गुरु के नाम पर ही सिक्के चलवाए.
नारी सम्मान
छत्रपति शिवाजी राजे नारियों का बहुत सम्मान करते थे. ऐसे कई प्रसंग है जब राजे ने स्त्री अपमान पर बहुत ही कठोर दंड दिया है. एक बार उनके राज्य में किसी ने एक महिला के साथ बलात्कार किया. राजे इस से इतना क्रोधित हुए कि उन्होंने उस अपराधी के दोनों हाथ कटवा दिए. मुगलों से हुए युद्ध में जब मराठा विजयी हुए, तो कुछ मराठा सरदारों ने कल्याण के सूबेदार की पुत्रवधु, जो अत्यंत सुन्दर थी, को बंदी बनाकर राजे के समक्ष प्रस्तुत करने का सोचा. उस समय युद्ध बंदी राजाओं की बहन/बेटी/बीवियों को दासी बनाकर रखने और उनका शोषण का चलन था. मराठा सरदार यही सोचें कि उनकी इस हरकत से राजे प्रसन्न हो जायेंगे. उन मराठा सरदारों ने उस स्त्री को राजे के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा कि "राजे, हम आपके लिए एक अत्यंत सुन्दर स्त्री लेकर आए है." राजे ने उस स्त्री को देखकर कहा कि "आप वाकई में बहुत सुन्दर है. मैंने ऐसी सुन्दर स्त्री इस से पहले कभी नहीं देखा. अगर मेरी माँ भी आप जितनी ही सुन्दर होती और आज मैं भी सुन्दर होता." राजे ने उस स्त्री में अपनी माँ को देखा. उसके बाद राजे ने उस स्त्री को उपहार देकर उसे सम्मान वापस भिजवा दिया. यह निसंदेह उनकी माता और उनके गुरु की ही शिक्षा थी, जिन्होंने सनातन धर्म के "यत्र नारी पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता" का ज्ञान राजे को बचपन से ही दिया था.
कुशल राजा और मित्रवत्सल
इतिहास में शायद ही ऐसा कोई राजा हुआ होगा जिसके राज्य में कभी विद्रोह न हुआ हो. किंतु छत्रपति शिवाजी राजे के राज्य में कभी कोई विद्रोह हुआ हो, ऐसा इतिहास में कही भी वर्णन नहीं मिलता है. इस से यह ज्ञात होता है कि राजे एक कुशल राजा थे. राजे ने कभी किसी निर्दोष का कत्ल नहीं किया या करवाया. यह उस समय की बात है, जब धर्म के नाम पर नरसंहार हुआ करता था. कभी यमुना के पानी को लाल किया गया, तो कभी नरमुंडों का पहाड़ खड़ा किया गया. ऐसे समय में भी किसी का धर्म के नाम पर कत्ल न करना अपने आप में बहुत बड़ी बात है. राजे ने जब सूरत, जो उस समय हज यात्रा का मार्ग हुआ करता था, पर चढ़ाई कर वहाँ के सूबेदार इनायत खान को हारने के बाद जब सूरत को लूट था, तब भी किसी निर्दोष को नहीं मारा था.
कोंढाणा के किले को जीतने के लिए जब सूबेदार तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा पर चढ़ाई किया था, तब तानाजी ने कोंढाणा किले पर तो विजय प्राप्त कर लिया, किन्तु स्वयं वीरगति को प्राप्त हो गए. उनके वीरगति का समाचार सुन कर राजे फुट फुट कर रोने लगे और कहा कि "गड आला, पण सिंह गेला." अर्थात "हम किला तो जीत गए, परन्तु मेरा सिंह चला गया." तब तानाजी के सम्मान में राजे ने कोंढाणा का नाम सिंहगढ़ रख दिया.
सर्वधर्म सम्मान
राजे बचपन से ही रामायण महाभारत और श्रीमद्भागवत गीता का ही गहन अध्ययन करते हुए बड़े हुए. उनकी माता श्री ने भी उन्हें श्री राम, श्री कृष्ण के चरित्र के बारे में कहानियाँ सुनाती थी. अपने गुरु के पास भी उनका समय ऐसा ही व्यतीत हुआ. इसी वजह से राजे भी अत्यंत धार्मिक थे. वो महादेव और माँ भवानी के उपासक थे. किन्तु वो दूसरे धर्मों का सम्मान करते थे. इतिहास में कहीं ऐसा वर्णन नहीं मिलता, जहाँ राजे ने कभी किसी धर्म का उपहास किया हो या कभी किसी धर्म को नीचा दिखाया हो. उनके राज्य में दूसरे धर्म के लोग भी रहते थे और अपने धर्म का पालन बिना किसी रोक टोक के करते थे. यह उस समय के लिए बहुत ही बड़ी बात थी.
यह छत्रपति शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व के कुछ पहलु थे. आज जो भी शिवाजी राजे के नाम राजनीति करते है या शिवाजी को भगवान की तरह पूजते है, किन्तु उनके मूल्यों से दूर दूर तक उनका कोई रिश्ता नहीं होता है. उन लोगों को राजे के जीवन के इस पहलु को भी स्वयं के जीवन में अपनाना चाहिए. छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन एक आदर्श है, जिसे आज भी अपने जीवन में अपनाया जा सकता है और जो खुद को हिन्दू या कट्टर हिन्दू मानते है, उन्हें राजे के जीवन से कुछ सीखना चाहिए. यही छत्रपति शिवाजी राजे को सच्ची श्रद्धांजलि होगा.
जय हिन्द
वन्दे मातरम
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