चीन, जो दुर्भाग्यवश भारत का पड़ोसी 1950 में बन बैठा. अन्यथा उससे पहले चीन की सीमा भारत देश से नहीं मिलता था. भारत और चीन के बीच में तिब्बत देश था. परन्तु हमारे नेताओं की लापरवाही और दूरदर्शिता की कमी के कारण चीन हमारे पड़ोस में आकर बैठ गया. अगर हमारे नेताओं ने भारत के प्राचीनतम इतिहास का अध्ययन किया होता, तो उन्हें इस बात की जानकारी होता कि "कभी भी किसी शक्तिशाली देश को अपना पड़ोस नहीं बनाना चाहिए". आप के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि "हम अपने पड़ोसी चुन नहीं सकते, तो चीन को अपना पड़ोसी बनने से कैसे रोक सकते थे"? तो इसका उत्तर यह है कि रोक सकते थे. पहले भारत और चीन के बीच में तिब्बत नामक देश था, जिस पर चीन ने 1950 में जबरदस्ती अपने कब्जे में ले लिया. उस समय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसका विरोध नहीं किया. 1954में चीन के साथ किए गए पंचशील समझौते में चीन का तिब्बत पर अधिकार भी मान लिया और तिब्बत का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ना उठाने के बात को भी स्वीकार कर लिया. नेहरू ने लोकसभा में इस बारे में कहा कि "तिब्बत चीन का परंपरागत और सांस्कृतिक भाग है. इसी वजह से चीन को अधिकार है कि वह तिब्बत को अपने कब्ज़े में ले ले". इसी समय नेहरू ने हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा दिया.
परन्तु चीन यही नहीं रुका और वह अपने विस्तारवादी निति के तहत तिब्बत के बाद भारत देश की सीमाओं पर भी धीरे धीरे अपना दावा करने लगा. भारत देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जब तक इसे ध्यान में लेकर चीन के खिलाफ कोई कदम उठाते, चीन भारत देश के लद्दाख के एक बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर चूका था जिसे आज हम "अक्साई चीन" के नाम से जानते है. जब भारत ने इसका विरोध किया, तब चीन ने पुरे अरुणाचल प्रदेश (उस समय NEFA- North East Frontier Agency) पर ही अपना दावा कर दिया. दोनों देशों के बीच चल रहे सीमा विवाद को सुलझाने के लिए 1960 में जब ज़होउ एनलाई (Zhou Enlai) भारत आए, तब उन्होंने ने सुझाव दिया कि "दोनों देशो को यथास्थिति को बनाये रखना चाहिए." इसका मतलब था कि "चीन का अक्साई चीन पर अधिकार रहेगा और अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना अधिकार जताना छोड़ देगा." नेहरू ने Zhou Enlai के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इसके बाद नेहरू ने भारत देश की सेना को "फॉरवर्ड पॉलिसी" अपनाने को कहा. "फॉरवर्ड पॉलिसी" का मतलब था, "भारत चीन के सीमा पर सैन्य चौकी बनाना". पहले भारतीय सेना सीमा पर सिर्फ पेट्रोलिंग करने के लिए जाती थी. पर बाद में सीमा पर कुछ सैन्य चौकी बनाया. इस से चीन में भारत के प्रति अविश्वास बढ़ा और इसी का परिणाम था "1962 नेहरू चीन युद्ध".
हालाँकि यह युद्ध एक तरफा रहा और चीन इसमें विजयी रहा (नेहरू चीन युद्ध के बारे में पढ़े). परंतु दो युद्ध स्थल पर चीन को भारत से कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ा और एक युद्ध स्थल पर तो चीन को पराजय का स्वाद भी चखना पड़ा. यह युद्ध स्थल था "रेजांग ला का युद्ध", जहाँ मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 125 अहीर जवानों ने चीन के 3000 सैनिकों से न सिर्फ लोहा लिया, बल्कि उन जवानों ने चीन को आगे बढ़ने नहीं दिया. चीन यहाँ पर आक्रमण कर के भारत के एक हवाई पट्टी को अपने कब्जे में लेना चाहता था, जो वहाँ से नजदीक था और उसे "दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी" के नाम से जाना जाता था. यह हवाई पट्टी रणनीति की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था. इस हवाई पट्टी का महत्वा इसी बात से समझ ले कि 2020 में भी चीन गलवान में घुसने की कोशिश कर रहा है, उसके कई कारणों में से एक "दौलत बेग ओल्डी हवाई पट्टी" भी है. भारत के लिए यह उस हवाई पट्टी को बचाने के साथ साथ अपनी इज्जत को भी बचाने की लड़ाई थी. इस युद्ध में मेजर शैतान सिंह और वीर अहीर जवानों ने वीरता की अलग ही परिभाषा लिखते हुए न सिर्फ 3000 सैनिकों को रोके रखा, बल्कि चीन के 1300 से 1500 तक सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.
जय भारत
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