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1962: नेहरू चीन युद्ध

 भारत और चीन की सेना गलवान घाटी में आमने सामने खड़ी है. स्थिति तनावपूर्ण है और गलवान घाटी के दोनों देश की सेनाओ के बीच में हुए झड़प के बाद यहाँ की स्थिति अत्यंत संवेदलशील हो चुकी है. हालाँकि की बातचीत से इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयत्न किया जा रहा है, पर इसका कोई प्रभाव अभी दिखाई नहीं दे रहा. इसी बीच समाचार पर चल रहे बहस में अक्सर ये सुनने को मिल जाता है कि यह 1962 वाला भारत नहीं है. 1962 में भारत और चीन के बीच पहला युद्ध हुआ था, जिसमे चीन ने एक तरफ़ा युद्ध शुरू किया और एक तरफ़ा ही युद्ध विराम भी. तो क्या वाकई में भारत 1962 का युद्ध हार गया था? 1962 युद्ध के क्या कारण थे?



जन्म और प्रारंभिक संबंध 
भारत 1947 में स्वतंत्रत हुआ था और चीन अपने देश में चल रहे गृहयुद्ध से 1949 में बाहर निकला था. चीन ने कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दिया था इसी वजह से विश्व के अधिकतर देश चीन के खिलाफ थे. ऐसे में जब चीन अलग थलग पड़ चूका था तब अकेले भारत ने ही चीन का साथ दिया था.
1950 में जब चीन ने तिब्बत पर अपना कब्ज़ा जमाया तब अमेरिका ने इसका विरोध किया था, भारत चुप रहा.
1954 में जब नेहरू ने चीन के साथ पंचशील समझौता किया तब नेहरू ने लद्दाख पर चीन के अधिकार को भी मान लिया और तिब्बत का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ना उठाने के बात को भी स्वीकार कर लिया. नेहरू ने लोकसभा में इस बारे में कहा कि तिब्बत चीन का परंपरागत और सांस्कृतिक भाग है. इसी वजह से चीन को अधिकार है कि वह तिब्बत को अपने कब्ज़े में ले ले. और इसी समय नेहरू ने हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा दिया.
1960 में जब भारत को वीटो पावर देने का प्रस्ताव हुआ तो नेहरू ने कहा कि हम गुटनिरपेक्ष देश है. तो हम इसकी जरुरत नहीं है. नेहरू के कहने पर ही वीटो पावर चीन को दिया गया.
अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि जब भारत चीन का लगातार साथ देता आ रहा था, फिर अचानक ऐसा क्या हुआ जिस से चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया?
सबसे पहली बात कि अचानक से कुछ भी नहीं हुआ था. इसके लिए कई कारण जिम्मेदार थे. उन कारणों को समझते है.

राजनैतिक कारण 
1959 में जब तिब्बत ने चीन के खिलाफ आवाज़ उठाया तो चीन ने अपनी सेना को तिब्बत में भेज कर उनके आवाज़ को बर्बरता से दबाने लगा. जब वहाँ के नेता और आध्यात्मिक गुरु ने भारत में आकर शरण लिया. नेहरू ने पुरे गर्म जोशी से दलाई लामा का स्वागत किया और चीन की इस बर्बरता का भारत ने विरोध किया और चीन से पूछा कि वो तिब्बत के लोगो के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? परन्तु चीन नेहरू से इस बात से नाराज था कि उसने दलाई लामा को अपने यहाँ शरण क्यों दिया?

सीमा विवाद
भारत और चीन का सीमा विवाद नया नहीं है.
भारत और चीन के बीच कभी भी सीमा सही से निर्धारित किया ही नहीं गया था. प्राकृतिक वस्तु जैसे हिमालय और पैंगॉन्ग त्सु तालाब को ही सीमा मान लिया गया था, जिस पर चीन समय समय पर विवादित बता कर उस पर अपना अधिकार जताता रहा है.
जैसे कि चीन अरुणाचल प्रदेश (उस समय NEFA) को लद्दाख का ही हिस्सा मान कर उसे साउथ लद्दाख कर उस पर अपना हक़ जताता रहता था.
साथ ही साथ चीन ने 1956 में तिब्बत जाने के लिए एक सड़क बनाया था जो अक्साई चीन होकर जाता था. नेहरू सरकार 3 साल तक इस से अनजान थी. 1959 में जब नेहरू सरकार को पता चला तो उन्होंने अपना विरोध जताया. चीन अक्साई चीन पर भी अपना अधिकार बता रहा था.
1960 में जब Zhou Enlai भारत आए तब सीमा विवाद को सुलझाने के लिए Zhou Enlai ने सुझाव दिया कि दोनों देशो को यथास्थिति को बनाये रखना चाहिए. इसका मतलब था कि चीन का अक्साई चीन पर अधिकार रहेगा और अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना अधिकार जताना छोड़ देगा. नेहरू ने Zhou Enlai के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

नेहरू की Forward Policy
1960 में भारतीय ख़ुफ़िया विभाग ने नेहरू को फॉरवर्ड पालिसी अपनाने को कहा. फॉरवर्ड पालिसी का मतलब था भारत चीन के सीमा पर सैन्य चौकी बनाना. पहले भारतीय सेना सीमा पर सिर्फ पेट्रोलिंग करने के लिए जाती थी. पर बाद में सीमा पर कुछ सैन्य चौकी बनाया. इस से चीन में भारत के प्रति अविश्वास बढ़ा. चीन के माउ जेदांग ने भारत पर आक्रमण का कारण बताते हुए कहा कि भारत तिब्बत पर कब्ज़ा करना चाहता था. क्योकि पहले भारत ने सीमा पर कभी भी कोई चौकी नहीं बनाया था.

वर्चस्व स्थापित करने की चाह 
चीन एशिया में अपना वर्चस्व जमाना चाहता था जिस से एशिया में चीन अपनी मनमानी कर सके और उसके लिए चीन ने भारत पर आक्रमण करके अपने ताक़त का परिचय देना चाहता था जिस से भविष्य में चीन अपनी सहूलियत के हिसाब से एशिया में अपनी मनमानी कर सके.
फॉरवर्ड पालिसी की वजह से 1959 से 1961 के बीच भारत चीन के सीमा पर भारतीय सेना और चीनी सेना के बीच झड़पें होती रहती थी. कई बार गोलियाँ भी चली. और चीन ने युद्ध का आरंभ भी कुछ इसी तरह से किया था. 20 अक्टूबर 1962 को कुछ भारतीय सैनिक पट्रोलिंग पर थे. चीनी सैनिको ने उन पर गोली बारी शुरू कर दिया. भारतीय सैनिको ने भी जवाबी कार्यवाही किया और ऐसे ही युद्ध की शुरुआत हुई.

युद्ध की शुरुआत
Zhou Enlai
चीन की इस युद्ध के लिए तैयारी इसी बात से समझिए कि चीन केवल 4 दिनों में ही असम तक चला आया था. उसके बाद अगले 3 सप्ताह तक कुछ नहीं हुआ. Zhou Enlai ने नेहरू के सामने वापस से प्रस्ताव भेजा कि हम 20KM पीछे हटाने को तैयार है. पर हम 60 KM अंदर घुस चुके है तो यहाँ से 20 KM पीछे हटेंगे. आप अक्साई चीन पर अपना दावा छोड़ दे. नेहरू ने मना कर दिया तो वापस से चीन ने अक्साई चीन पर भी आक्रमण कर दिया. वैसे तो ये युद्ध पूरी तरह से एक तरफ़ा रहा था, पर गढ़वाल राइफल्स के राइफलमैन जसवंत सिंह रावत और रेज़ांग ला के युद्ध में मेजर शैतान सिंह ने अदम्य वीरता का प्रदर्शन किया. 21 नवंबर 1962 को चीन ने एक तरफ़ा युद्धविराम की घोषणा कर दिया. 
पराजय के कारण 
नेहरू की दूरदर्शिता की कमी और चीन पर अँधा  विश्वास 
चीन का तिब्बत पर अधिकार करने के मुद्दे पर समर्थन, 1954 में पंचशील समझौता और वीटो पावर के लिए चीन का समर्थन करने के बाद नेहरू यही समझते थे कि अब चीन भारत पर कभी भी आक्रमण नहीं करेगा और नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा दिया.

पर नेहरू ने तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान कर नेहरू चीन को भारत की सीमा तक लेकर आ गए थे. अन्यथा पहले भारत और चीन की सीमा कही मिलती ही नहीं थी. इसी के बाद से नेहरु ने सेना पर किये जाने वाले खर्च पर भरी कटौती कर दिया जिस से सेना के पास उस समय ना उचित कपड़े और ना हथियार. यहाँ तक की एयरफोर्स और नेवी को इस युद्ध से दूर रखा गया था. इन दोनो को अगर शामिल कर लिया जाता, तो युद्ध का परिणाम अलग होता.

रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन

ये भारत देश का दुर्भाग्य था कि भारत देश के रक्षा मंत्री नेहरू के कृपापात्र कृष्णा मेनन थे. ये रक्षा मंत्री होने के बाद भी कभी सेना के साथ बात नहीं करते थे ना सेना के बीच जाते थे. एक चिड़चिड़े व्यक्ति के रूप में उन्हें सेना प्रमुखों को उनके जूनियरों के सामने अपमान करते मज़ा आता था. वे सैनिक नियुक्तियों और पदोन्नति में अपने चहेतों पर काफ़ी मेहरबान रहते थे. निश्चित रूप से इन्हीं वजहों से एक अड़ियल मंत्री और 
   जनरल केएस थिमैया

चर्चित सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया के बीच बड़ी बकझक हुई. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन उन्हें अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया गया.


लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल, जिन पर कृष्ण मेनन की छत्रछाया थी. लेफ़्टिनेंट जनरल बीएम कौल को पूर्वोत्तर के पूरे युद्धक्षेत्र का कमांडर बनाया गया था. उस समय वो पूर्वोत्तर फ्रंटियर कहलाता था और अब इसे अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है. 
बीएम कौल पहले दर्जे के सैनिक नौकरशाह थे और उन्हें युद्ध का कोई अनुभव नहीं था. ऐसी ग़लत नियुक्ति कृष्ण मेनन के कारण संभव हो पाई.
प्रधानमंत्री की अंध श्रद्धा के कारण वे जो भी चाहते थे, वो करने के लिए स्वतंत्र थे. लेकिन उसके बाद सेना वास्तविक रूप में मेनन की अर्दली बन गई. उन्होंने कौल को युद्ध कमांडर बनाने की अपनी नादानी को अपनी असाधारण सनक से और जटिल बना दिया. हिमालय की ऊँचाइयों पर कौल गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्हें दिल्ली लाया गया. मेनन ने आदेश दिया कि वे अपनी कमान बरकरार रखेंगे और दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग के अपने घर से वे युद्ध का संचालन करेंगे. सोच कर देखिये. युद्ध चल रहा है सीमा पर और उसका नेतृत्व दिल्ली से हो रहा हो.

ख़ुफ़िया विभाग की असफलता
ख़ुफ़िया विभाग में सभी मेनन के सहायक थे. बी एन मलिक की भूमिका बड़ी थी. मलिक नीतियाँ बनाने में अव्यवस्था फैलाते थे, जो एक खुफिया प्रमुख का काम नहीं था. अगर मलिक अपने काम पर ध्यान देते और ये पता लगाते कि चीन वास्तव में क्या कर रहा है, तो हम उस शर्मनाक और अपमानजनक स्थिति से बच सकते थे. लेकिन भारत पूरी तरह संतुष्ट था कि चीन की ओर से कोई बड़ा हमला नहीं होगा. उधर माओ, उनके शीर्ष सैनिक और राजनीतिक सलाहकार सतर्कतापूर्वक ये योजना बनाने में व्यस्त थे कि कैसे भारत के ख़िलाफ़ सावधानीपूर्वक प्रहार किया जाए, जो उन्होंने किया भी.

टकराव से डर
सेना प्रमुख जनरल पीएन थापर ये जानते हुए कि कौल स्पष्ट रूप से कई मामलों में पूरी तरह से ग़लत थे, जनरल थापर उनके फ़ैसले को बदलने के लिए भी तैयार नहीं रहते थे.

क्योकि लेकिन वे मेनन से टकराव का मोल लेने से डरते थे.
कृष्ण मेनन और कौल पूरे देश में नफरत के पात्र बन चुके थे. नेहरू पर काफ़ी दबाव पड़ा और उन्होंने मेनन को सात नवंबर को हटा दिया. कौल के मामले में राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने जैसे सब कुछ कह दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी को नेहरू ने एक पत्र लिखा था. जिसके बाद 19 नवंबर को दिल्ली आए अमरीकी सीनेटरों के एक प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति से मुलाकात की. इनमें से एक ने ये पूछा कि क्या जनरल कौल को बंदी बना लिया गया है. इस पर राष्ट्रपति राधाकृष्णन का जवाब था, "दुर्भाग्य से ये सच नहीं है!"


चीन के युद्धविराम के कारण 
  • चीन को अक्साई चीन पर कब्ज़ा करना था वो उसने कर लिया. जिससे उसके उदेश्य की पूर्ति हो चुकी थी
  • UK, USA और सिवोयत संघ का भारत को समर्थन
  • अमेरिका का युद्ध में शामिल होने का डर 

परिणाम
इस युद्ध में पराजय के बाद नेहरू के छवि धूमिल हो गई. संसद में जब इस बारे में चर्चा शुरू हुआ तो नेहरू ने कहा, "हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे और हम एक बनावटी माहौल में रह रहे थे, जिसे हमने ही तैयार किया था." जब अक्साई चीन वापस लेने के बारे में पूछा गया तो नेहरू ने जवाब दिया, "अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका हो!"

इस पर नेहरू के मंत्रिमंडल के महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर दिखाया और कहा "यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं।"
नेहरू को इसकी उम्मीद नहीं थी.
  • युद्ध में पराजय के कारण ढूँढने के लिए गठित हन्ड्रेसन ब्रुक्स भगत ने एक रिपोर्ट तैयार किया जिसे आज तक गोपनीय रखा गया है. 
  • भारत इस युद्ध से सीखते हुए सेना को ताकतवर बनाने के लिए कदम उठाये.
  • चीन और पाकिस्तान के संबंध मजबूत हुए.

किसी के हस्तक्षेप न करने का कारण
सोवियत संघ (USSR) और USA के बीच चल रहे क्यूबा मिसाइल संकट चल रहा था जिसके वजह से दोनों देशो के बीच लगभग परमाणु युद्ध तय था. इसी वजह से चाह कर भी दोनों में से कोई भारत की सहायता के लिए आगे नहीं आया.  भारत को इस मिसाइल संकट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. 25 अक्तूबर को रूसी समाचार पत्र प्रावदा ने ये कह दिया कि
"चीन हमारा भाई है और भारतीय हमारे दोस्त हैं." इससे भारतीय कैंप में निराशा की लहर दौड़ गई. प्रावदा ने ये भी सलाह दी कि भारत को व्यावहारिक रूप से चीन की शर्तों पर चीन से बात करनी चाहिए. क्यूबा संकट का समाधान क़रीब आते ही रूस अपनी पुरानी नीति पर आ गया. लेकिन माओ ने आक्रमण का समय इस हिसाब से ही तय किया था. आख़िर में माओ ने भारत में वो हासिल कर लिया, जो वो चाहते थे.


निष्कर्ष
नेहरू के दूरदृष्टिता की कमी, उदारिकरन और कई गलत फैसलों के कारण ही इस युद्ध में भारत पराजित हुआ. यह कहना गलत नहीं होगा कि यह युद्ध भारत और चीन के बीच नहीं बल्कि नेहरू और चीन के बीच था.


जय हिन्द
वन्देमातरम


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