विदेशी आक्रान्ताओं की पिछल कड़ी में हमने भारत वर्ष को शक विहीन करने वाले राजाधिराजमहाराज विक्रमादित्य के विषय में चर्चा किया था. आज हम विदेशी आक्रान्ताओं की चौथी कड़ी में सर्वप्रथम बहुत ही संक्षिप्त में चर्चा करेंगे कुषाण वंश की और उसके बाद सम्पूर्ण विश्व को अपने आतंक से आतंकित करने वाले हूणों के भारत पर आक्रमण की. किन्तु उस से भी पहले हूणों की बरर्बरता और उनके क्रूरता की. क्योंकि बिना उनके क्रूरता को जाने बिना उनके खतरे का सही से आकलन करना संभव नहीं होगा. कुषाण वंश या शकों का भारत की तरफ मुड़ने का मुख्य कारण हूणों का इन पर आक्रमण ही था. कुषाण वंश के सम्राट कनिष्क सबसे प्रसिद्ध राजा हुए और उनके समय में कुषाण साम्राज्य का अत्यंत विस्तार हुआ, जो चीन तक फैला हुआ था. भगवान शिव के उपासक कनिष्क सम्राट अशोक की ही तरह भविष्य में बौद्ध धर्म को अपना लिया और उसी के प्रचार प्रसार में लग गए. कनिष्क के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने कुषाण वंश के साम्राज्य को तो बढ़ाया और लगभग 345 वर्षों तक शासन किया, किन्तु पश्चिम से सस्सनियंस (The Sasanian या Neo-Persian Empire) के आक्रमण से और पूर्व से गुप्त साम्राज्य के
विदेशी आक्रांताओं के द्वितीय कड़ी में हमने पुष्यमित्र शुंग के विषय में चर्चा किया, जिन्होंने भारत को यवनों (Indo Greek) के आक्रमण से बचाया. आज हम एक ऐसे सम्राट के विषय में चर्चा करेंगे, जिसने भारत वर्ष में से शकों (Indo-Scythians) के साम्राज्य को उखाड़ फेंका और भारत वर्ष पर 100 वर्ष तक राज्य किया. एक ऐसे सम्राट की, जिन्होंने विक्रम संवत का आरंभ किया. एक ऐसे सम्राट की, जिसे हमारे इतिहासकारों ने अत्यंत परिश्रम से ऐतिहासिक से काल्पनिक पात्र बना दिया है. एक ऐसे राजा की, जिनकी कहानियाँ आज भी विक्रम बैताल और सिंहासन बत्तीसी में सुनाये जाते है. हम चर्चा करेंगे भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमसेन की, जिन्हे आगे चल कर "विक्रमादित्य" कहा जाने लगा. विक्रमसेन की महानताऔर श्रेष्ठता समझने के लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त है कि "अगर किसी राजा को महान बतलाना हो, उसे नाम में विक्रमादित्य जोड़ दिया जाता था." इस प्रकार विक्रमादित्य नाम महानता का प्रतिक एक उपाधि बन गया और विक्रमादित्य एक काल्पनिक पात्र. आज विदेशी आक्रांताओं के तृतीय भाग में हम उन्ही विक्रमादित्य की चर्चा करेंगे. शकों