हमारा प्यारा देश भारतवर्ष. इस भारत वर्ष की भूमि पर अलग अलग समय में अलग अलग रूप में भगवान अवतार लेते रहे है. इसी वजह से भारत वर्ष को देवभूमि भी कहते है. देवभूमि जो एक समय में सभी संस्कृतियों का केंद्र था. संस्कृति जो हमे जीवन जीने का तरीका सिखाती है और जीवन मूल्यों से हमारा परिचय करवाया. भारत वर्ष की उसी संस्कृति ने हमे सिखाया, "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:". अर्थात:- "जिस स्थान पर नारी की पूजा होती है नारी का सम्मान होता है उसी स्थान पर देवताओं का वास होता है." यह भारत वर्ष की संस्कृति है.
बाहुबली का एक दृश्य |
इसी वजह से बाहुबली फिल्म में बाहुबली ने अपनी पत्नी देवसेना और दूसरे औरतो को सिर्फ हाथ लगाने वाले सेनापति का यह कह कर गाला काट दिया था कि "औरत की इज्जत पर हाथ डालने वालो की उँगलियाँ नहीं काटते, काटते है उनका गला." बड़ी सीटियाँ और तालियाँ बजी थी इस पर. कमाल का दृश्य था वो. वास्वत में हमारी संस्कृति हमे यही सिखाती है. त्रेतायुग में राम और रावण का युद्ध हो या द्वापरयुग में महाभारत का युद्ध सब एक नारी के सम्मान के लिए लड़ा गया था.
बलात्कार शब्द संस्कृत के एक शब्द "बलात्कारेन" से बना है जिसका मतलब होता है 'बल पूर्वक'. पर आज इस संस्कृत शब्द का हिंदी में अर्थ किसी की आत्मा पर चोट करना है, किसी की आत्मा को चीर देना है. एक बलात्कार पीड़ित क्या महसूस करती है, मैं उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता क्योकि मैं उसके दर्द को नहीं समझ सकता और भगवान ना करे कि किसी के ज़िंदगी में ऐसा कभी कोई दिन आए कि उसे को समझना पड़े.
बलात्कार पीड़ित के सिर्फ शरीर के साथ बलात्कार नहीं होता, बलात्कार होता है उसकी आत्मा के साथ, उसके अस्तित्व के साथ, उसके आत्म विश्वास के साथ. इसे थोड़ा समझने की कोशिश करते है.
परिवार का व्यव्हार
ऐसी किसी पीड़िता के साथ सबसे पहले उसका परिवार उसका साथ छोड़ देता है. सब नहीं पर ज्यादातर. तरह तरह की बातें खुद के परिवार वाले ही बोलने लगते है. आप उसके मनोस्थिति को समझ नहीं सकते. मैं इसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता. इसके लिए मेरे पास सिर्फ एक ही पंक्ति है, "इसका जिम्मेदार समाज है. क्योकि उनके परिवार को भी उसी समाज में रहना है."
समाज का नजरिया
मैं समाज के बारे में बोल सकता हूँ और खुल कर बोल सकता हूँ क्योकि मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूँ . मुझे अत्यंत दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि मैं आप हम सब एक ऐसे घिनौंने समाज का हिस्सा है जहाँ पर एक पीड़िता की मदद के लिए कोई आगे आए या ना पर उसके चरित्र पर उसके पहनावे पर उसके रहन सहन पर उसके बहार आने जाने हर एक बात पर ऊँगली उठाने वाले और पीड़िता को जिम्मेदार ठहराने वाले जरूर मिल जायेंगे. हाथ में मोमबत्ती लेकर कैंडल मार्च निकालने वाले बहुत मिल जायेंगे और वही सभी लोग ऐसा कुछ अपने सामने होता देख इतनी भी हिम्मत नहीं कर पाते कि छेड़ने वाले को कुछ बोल सके. सबसे दुःख की बात यह है कि ऐसा कुछ होता देख कंधा ऊँचा कर के बोलते है छोड़ना. हमे क्या? ऐसा कहने से पहले कभी ये सोचा है कि उस लड़की की जगह खुद के घर की लड़की हो तो...? सोचकर ही पसीना आ जायेगा.
जिस निर्भया के लिए लाखो लोग कैंडल मार्च निकाले हुए थे उसी निर्भया को फेंक दिया था सड़क पर निर्वस्त्र. रात भर वो लड़की वैसे ही पड़ी थी. क्या वाकई वहाँ से गुजरते हुए लोगो में से किसी ने उसे देखा ही नहीं होगा! जब निर्भया कांड के बाद इतना बड़ा आंदोलन जैसा चल रहा था दिल्ली में तभी किसी ने एक लड़की को चलती बस में छेड़ दिया था. बस में बैठे सभी लोग चुप रहे. सिर्फ एक इंसान ने उसका विरोध किया था तो उन हैवानों ने उस विरोध करने वाले को मारा और बस से उतर कर चले गए.
बात यही ख़त्म नहीं हो जाती. उस लड़की को, लड़की के परिवार को ऐसी हीन नज़र से देखते है कि उन बेचारों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है. उसके बाद एक सबसे बड़ा प्रश्न एक राक्षस की तरह सामने मुँह खोले आ जाता है इस से शादी करेगा कौन? इस प्रश्न को सुनते ही पीड़िता वापस से टूट जाती है और ज्यादातर आत्महत्या कर लेती है. और उनके पास रास्ता ही क्या बचा होता है? अपने बेटों को अंग्रेजी या अच्छे हाई फाई स्कूल में पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ पर उसे ये जरूर सिखाएं कि लड़कियों को इज्जत करनी चाहिए और अगर कही कुछ गलत देखें तो उसका विरोध करे. लड़कियों को तो बहुत सीखा लिया कि कैसे रहें कैसे उठें कैसे बैठे कहाँ आएं कहाँ जाएं अब थोड़ा लड़को को भी सीखा कर देखें. शायद कुछ फर्क आ जायेगा.
कानून और प्रशासन
पीड़िता अगर खुद के घर परिवार और समाज से लड़ कर आगे बढ़ भी गई तो पुलिस और प्रशासन (सभी नहीं) वापस से उसकी आत्मा को नोचने लगते है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिसमे पुलिस ने या तो शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया है या शिकायत दर्ज करने में आनाकानी किया है. कारण मुझे आज तक समझ में नहीं आया. मैं ऐसे लोगों को मानव मानता ही नहीं जो बलात्कारी हो या बलात्कारियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद करे और आतंकवादियों का. ना ये मानव है और ना इनका कोई मानवाधिकार होना चाहिए. पुलिस और प्रसारण को अगर इनकी गिरफ़्तारी से बचना ही हो तो शिकायत दर्ज ही ना करे. जाँच करे. अपराधी जब पकड़ा जाये तो पीड़िता के हाथों ही उसका उद्धार करवा दे. इस से समाज में उसकी इज्जत भी बच जाएगी और उसे भी थोड़ी राहत मिल जाएगा. हैदराबाद में जो हुआ वो सभी को याद ही होगा. हैदराबाद पुलिस ने जब उन सभी बलात्कारियों को ठीक उसी जगह मार दिया पुरे देश के लोगो ने उनके इस कदम को सराहा था. न्याय समय पर मिले तभी उसका महत्व होता है.
न्याय प्रणाली
पीड़िता का सबसे ज्यादा मजाक बनाने का और वापस से उसके हर ज़ख्म को नोंच नोंच कर ताजा करने का काम यही करता है. मैं उस न्याय प्रणाली में मान ही नहीं सकता और मानना भी नहीं चाहता जो जेल में बलात्कार जैसे घिन्नौने महापराध में सजा काट रहे दोषी को 2 दिन के पैरोल पर इसी लिए छोड़ दे ताकि वह संसद के सदस्य के तौर पर शपथ ले सके! यह कारनामा कर दिखाया इल्लाहाबाद उच्च न्यायलय ने. न्यायाधीश रमेश सिन्हा ने बलात्कार के जुर्म में सजा काट रहे अतुल राय को दो दिन का पैरोल दिया था जिस से वो संसद सदस्य की सपथ ले सके. क्या मैं इस न्याय प्रणाली में विश्वास करुँ?
या उस न्याय प्रणाली में विश्वास करुँ जो बलात्कार के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा काट रहे दरिंदे को पैरोल पर छोड़ा और उस दरिंदे ने बहार आकर 2 और मासूम लड़कियों के इज्जत को तार तार कर दिया. गुजरात के चोटिला के 50 वर्षीय अध्यापक, नाम धवल त्रिवेदी, जो बलात्कार के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा काट रहा था वह पैरोल पर बहार आया और बहार आकर 12 वीं कक्षा में पढ़ने वाली 2 लड़कियों का वापस से बलात्कार किया. क्या मैं इस न्याय प्रणाली में विश्वास करुँ?
या मैं उस न्यायलय में विश्वास कर उसका सम्मान करुँ जो दो बलात्कारियों को पैरोल पर छोड़ देता है और बहार आने के बाद वो दोनों आरोपी और तीन के साथ मिल कर पीड़िता को डराते धमकाते है. पुलिस में शिकायत करने पर पुलिस गूंगी, बहरी और अंधी बन जाती है. फिर एक दिन वो पाँचो मिलकर पीड़िता का पीछा करते है, उसे मारते पीटते है और फिर बाद में उसे आग के हवाले कर देते है. 90% जली हुई अवस्था में वो लड़की भागकर अपना जान बचाती है किसी के फ़ोन से खुद फ़ोन कर पुलिस को पूरी बात बताती है और खुद उसी अवस्था में थाने में पहुँच जाती है. ऐसे ना जाने कितने उदहारण है. ऐसे में हम इस न्याय पालिका को भी जिम्मेदार क्यों न माने?
निर्भया केस के 6 आरोपियों में से मुकेश (हो सकता है की नाम गलत हो, पर मैं फ़िलहाल सही और गलत नाम के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता) यह कहता है कि हमें फांसी नहीं होनी चाहिए. क्योकि बलात्कार करने के बाद यह कह कर छोड़ देते थे कि जाने दो यह किसी को नहीं बताएगी. अगर हमें फांसी दी गई तो अब छोड़ने की जगह लड़कियों को जान से मार देंगे. अगर इनमे कानून का डर नहीं है तो इसके लिए मैं इस न्याय प्रणाली को जिम्मेदार क्यों न ठहराउँ और क्यों मैं इस न्याय प्रणाली में विश्वास करुँ?
उसके बाद 2012 में हुए इस घोर महा अपराध के अपराधियों को फांसी के तख्ते पर पहुँचाने में 8 वर्ष लगे. तब तक उसकी माँ का मजाक बनाते खिल्ली उड़ाते वकील ए पी सिंह, जिसने न सिर्फ निर्भया की माँ को कहा था की मै इन चारो की फांसी को अनिश्चित काल के लिए लटका दूंगा, ने खुलेआम बेशर्मी से उन चारों अपराधियों को बचाने के खुद के फैसले को सही ठहरता रहा. ऐसे में उसे चेतावनी देने या उसका लाइसेंस रद्द करने की जगह यह सब देखते रहने वाली न्याय प्रणाली का सम्मान करुँ?
इसी निर्भया केस के छट्ठे आरोपी को नाबालिक कह कर उसे छोड़ देने वाले न्याय प्रणाली में विश्वास करुँ? उसी नाबालिक बलात्कारी को दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने एक सिलाई मशीन और 10,000 रुपये दिया था.
इस नाबालिक बलात्कारी के विषय में मैं कुछ नहीं कहूंगा. पर एक वीडियो दिखाना चाहूँगा. इस वीडियो में भारत के उप राष्ट्रपति श्री वैंकैयानायडु जी ने नाबालिक बलात्कारी के सजा पर, न्यायलय से उच्च न्यायलय, फिर उच्चतम न्यायलय फिर दया याचिका पर जो कहा है वो जरूर देखें और सुने.
पर प्रश्न यह है कि जहाँ के राजनेताओ में से ही कई बलात्कारी हो (लगभग हर एक पार्टी में ऐसे नेता मौजूद है) और जहाँ मुलायम सिंह जैसे नेता हो जो ये कहते हों कि लड़को से गलती हो जाती है, हम प्रधानमंत्री बनेंगे तो बलात्कार के जुर्म में बंद सभी अपराधियों को बहार निकलवा देंगे ऐसे में क्या कभी ऐसा दिन आना संभव है जहाँ बलात्कारियों को 30 दिनों के अंदर फांसी पर चढ़ाया जा सके? अगली बार जब राजनेता आपके यहाँ आएँ वोट माँगने तब उनसे जरूर पूछें.
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