भारत देश 15 अगस्त1947 में आजाद हुआ है. अपनी आजादी के बाद से ही भारत ने लोकतंत्र को अपनाया ही और विश्व में सबसे बड़ा देश है जिसने लोकतंत्र व्यवस्था को सफलतापूर्वक बनाये रखा. पर इस लोकतांत्रिक देश के 73 वर्षों के लंबे इतिहास में 1975 का 25-26 जून ऐसा दिन है,
जो इसका लोकतांत्रिक देश पर काले धब्बे जैसा है. 1975 का वो दिन था आपातकाल का, इमरजेंसी का. जब एक प्रधानमंत्री ने सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने के लिए पुरे देश में आपातकाल लगा दिया था. वही आपातकाल जिसमे कांग्रेस को छोड़ बाकि सभी पार्टियों को अवैध करार दे दिया गया. हर एक बड़ा नेता जेल की सलाखों के पीछे था. मीडिया पर भी बैन लगा दिया था और इस तानाशाही के सिंहासन पर बैठी थी इंदिरा गाँधी. पर वो सिर्फ चेहरा थी. असली ताक़त थी प्रधानमंत्री माँ के बेटे संजय गाँधी के पास. जो किसी
भी पद पर न होते हुए भी पुरे देश को अपनी उंगलियों पर नचा रहा था और देश में सिर्फ अपनी ही दबंगई चला रहा था. आइए समझते है इस आपातकाल के कारणों को, उसके असर को.
पृष्ठभूमि
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राज नारायण सिंह |
1971 में लोकसभा चुनाव हुआ था, जिसमें इंदिरा गाँधी राय बरेली से चुनाव लड़ी थी और विजयी हुई थी. इंदिरा गाँधी के विपक्ष के उम्मीदवार थे राज नारायण सिंह. उन्होंने इस चुनाव में राय बरेली सीट से हुए धांधली की याचिका लगा दिया न्यायलय में. 1975 में इस याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायलय में सुनवाई शुरू हुई, जिसके न्यायाधीश थे जगमोहनलाल सिन्हा. 12 जून 1975 के दिन न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने अपना फैसला सुनते हुए इंदिरा गाँधी को चुनावी धांधली का दोषी पाया और राय बरेली की सीट को रद्द कर कर दिया और इंदिरा गाँधी पर 6 वर्षो का मताधिकार का अधिकार छीन लिया. इंदिरा को 20 दिनों का समय दिया, जिससे वो अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली कर किसी और को प्रधानमंत्री बना सके. बस यही से शुरुआत हो गई थी आपातकाल लगाने की.
शेषन ने यह खबर संजय गाँधी को दिया और संजय गांधी यह खबर लेकर सीधा इंदिरा गांधी के पास पहुंचे. इंदिरा गाँधी चिंतित थी. उन्होंने संजय गाँधी से पूछा कि उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए? पार्टी संजय ने साफ मना कर दिया. संजय को बिना किसी पद के ताकत कर नशा हो चूका था. उस ताकत को संजय अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता था. संजय ने उसी समय कहा, आप अभी भी प्रधानमंत्री है. हम आपकी कुर्सी बचाने के लिए कुछ उपाय करेंगे. जरुरत पड़ी तो हम आपातकाल लगाने के बारे में भी सोचेंगे. वो संजय ही थे जो किसी भी कीमत पर इंदिरा को प्रधानमंत्री पद पर बनाये रखना चाहते थे. वरना इंदिरा तो शायद इस्तीफा दे देती.
कुर्सी बचाने की जदोजहत
1 सफदरजंग रोड, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का आवास. वहाँ पर किले बंदी की तयारी हो चुकी थी. पूरा 1 सफदरजंग रोड एक किले में बदल गया. वहाँ सिर्फ कांग्रेस के कार्यकर्ता दिखाई दे रहे थे. दिल्ली और हरियाणा पुलिस के अलावा वहाँ CRPF के जवान IB के अधिकारी सभी तैनात कर दिए गए. संजय गाँधी अपनी माँ की कमजोरी को जानते थे जो थी भीड़. इसी वजह से दिल्ली की करीब 1000 बसें सिर्फ किराये के भीड़ को लाने और ले जाने के लिए लगा दी गई. रोजाना 5 प्रदर्शन होने की बात तय हुई. यह सब 12 जून की ही घटना थी.
रोजाना किराये की भीड़ बस से आने लगी जिसमें संजय गाँधी का लगभग रोज भाषण होता ही था. इसी किराये की भीड़ के सामने देव कांत बरूआह ने नारा दिया, "इंदिरा इस इंडिया, इंडिया इस इंदिरा". किराये की भीड़ इंदिरा के नाम का हुंकार रोज भरती. सत्ता को अपनी कुर्ते की जेब में रखने की चाहत करनेवाले संजय गाँधी ने अपनी माँ की कुर्सी को बचाने के लिए कुछ भी करने का मन बना लिया था. जरूरत पड़ने पर आपातकाल लगाने का भी. अब बस किसी तरह इंदिरा को मनाना था. एक बार तो इंदिरा ने कानूनी पचड़े में से बहार निकलने तक प्रधानमंत्री पद छोड़ने का मन भी बना लिया था.
ऐसे में उनकी जहाज प्रधानमंत्री कौन बनेगा यह सवाल सामने आते ही राजनैतिक गलियारों में चार नाम तैरने लगे. वो नाम थे: जगजीवन राम, वाई बी चव्हाण, स्वर्ण सिंह और कमला पति त्रिपाठी. पर संजय गाँधी ने इंदिरा को समझाया कि "6 महीने का समय बहुत लंबा होता है. एक बार ये प्रधानमंत्री के पद से हट गई और उनकी जगह कोई और प्रधानमंत्री बन गया तो बाद में लाख कहने पर भी वह प्रधानमंत्री की कुर्सी से नहीं उतरेगा." इस तरह से अब यह तय हो गया था कि प्रधानमंत्री के पद पर इंदिरा ही बनी रहेगी.
इसी बीच इंदिरा ने 18 जून 1975 को कांग्रेस की संसदीय बैठक बुलाया. जिसमे सभी ने इंदिरा की अध्यक्षता में आस्था दिखाया. किसी ने यह नहीं कहा कि इंदिरा को न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए इस्तीफा दे देना चाहिए. इंदिरा के प्रधानमंत्री पद पर बने रहने को जरुरी माना. पर पाँच नेताओं ने इसका विरोध किया. वो युवा नेता थे. चंद्रशेखर, कृणाकान्त, मोहन धारिया, लक्ष्मीकांतमा, और रामधन. अब यह तय हो चुका था कि संसद तो चलती रहेगी, पर इसे सांसद नहीं बल्कि संजय गाँधी चलाएगा, जो संसद का सदस्य तक नहीं था. संपूर्ण कांग्रेस ने इंदिरा तो छोड़ो, संजय गाँधी के सामने घुटने टेक दिए थे. पर सवाल ये था कि क्या देश की जनता भी इंदिरा को अपना नेता मान लेगी? संजय गाँधी ने इसका एक रास्ता निकला एक पारिवारिक रास्ता निकला. संजय के कहने पर 20 जून को इंदिरा गाँधी ने पोर्ट क्लब पर एक विशाल जनसभा को संबोधित किया. उसमें लगभग 10 लाख लोग के आए थे. साथ ही साथ पूरा गाँधी परिवार एक साथ एक मंच पर था. दोनों बेटे, दोनों बहुएं, राहुल और प्रियंका भी. इंदिरा का भाषण 25 मिनट तक चला. अपने भाषण के अंत में इंदिरा ने कहा, "अब आप घर जाइए और बॉबी फिल्म का मज़ा लीजिये." बॉबी फिल्म उस समय बहुत प्रसिद्ध हुई थी और उस समय बॉबी फिल्म का टीवी पर आना बहुत बड़ी बात थी और यह सब सिर्फ जनता का ध्यान भटकाने के लिए था. 20 जून को ही इंदिरा ने उच्चतम न्यायलय गई.
विपक्ष की तैयारी
इधर अभी यह सब चल ही रहा था कि गुजरात से इंदिरा के लिए बुरी खबर आई. गुजरात विधानसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को नकार दिया. यह इंदिरा के लिए झटके से कम नहीं था और मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायणन जैसे नेता जो इंदिरा का इस्तीफा चाहते थे उनके लिए नए जोश जैसा था. साथ ही जयप्रकाश नारायण भाँप चुके थे कि किराये की भीड़ थी और ये किराये की भीड़ इंदिरा को बचा नहीं सकती. जनता अब और भ्रष्टाचार बर्दास्त नहीं करेगी. उसके बाद गुजरात के चुनावी नतीजों के धमाके पुरे देश मे सुनाई देने लगा. इंदिरा गाँधी इस्तीफा दो.
20 जून को इंदिरा के पोर्ट कल्ब के जनसभा के बाद तय हुआ कि जयप्रकाश की जनसभा 25 जून को होगा. जयप्रकाश के सामने बड़ी चुनौती थी इंदिरा के जनसभा से ज्यादा लोगों को इकठ्ठा करने का. जयप्रकाश 23 जून को पटना से दिल्ली हवाई जहाज से आने वाले थे. ऐसे में जयप्रकाश को रोकने के लिए मौसम खराब होने का हवाला देकर हवाई जहाज उड़ने नहीं दिया गया. जयप्रकाश इंतज़ार करते रहे और बाद में ट्रैन से ही दिल्ली के लिए निकल गए. उसके अगले दिन यानि 24 जून के दिन जयप्रकाश दिल्ली में थे. जयप्रकाश का दिल्ली पहुँच जाना ही इंदिरा के लिए किसी धमाके से कम नहीं था. इधर उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश वि आर कृष्णा अय्यर ने फैसला सुना दिया की इंदिरा प्रधानमंत्री के पद पर तो बनी रह सकती पर संसद में वोट नहीं कर सकती. इस से विपक्ष का हौसला और बढ़ गया. और जब जयप्रकाश ने 25 जून को रामलीला मैदान से भाषण दिया तो 1 सफदरजंग हिल गया. भारत के इतिहास में वैसा भीड़ इस से पहले कभी भी नहीं देखा गया था. रामलीला मैदान से संसद तक जनसैलाब था. जयप्रकाश ने कहा, "खलक खुदा का, मुलक बादशाह का, हुकुम शहर कोतवाल का. हर खाशो आम को आगाह किया जाता है खबरदार रहे. और अपने अपने कि किवाड़ो को अंदर से. कुडी चढा कर बंद कर लें. अपने अपने खिलाड़ियों के पर्दों को गिरा लें. बच्चों को बहार सड़क पर ना भेजे. क्योकि एक 72 साल का बूढ़ा आदमी अपनी कनपटी कमजोर कमजोर आवाज़ में सड़क पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है." इसके बाद जयप्रकाश ने वहाँ खड़ी लाखो लोगों को यह कसम दिलवाई कि हमला चाहे जैसा हो हम हाथ नहीं उठाएंगे लाखो लोगो ने बंद मुट्ठी ऊपर उठा कर कसम खाया. यही बंद मुट्ठी इंदिरा के दिल के डर को बढ़ा गई.
आपातकाल का दिन
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फकरुद्दीन अली अहमद |
25 जून को रात 8 बजे इंदिरा गाँधी राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद से मिलने पहुंची. मिलने क्या पहुंची आपातकाल लगाने की सुचना देने पहुँची. रात 11 बजे इंदिरा के गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी राष्ट्रपति भवन आपातकाल के घोषणा पत्र पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर लेने पहुँचे. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के तुरंत बाद आपातकाल लग गया. आपातकाल लगते ही सत्ता इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी की बंधक बन कर रह गई. भारतीय संविधान की धारा 21 को भी निलंबित कर दिया गया. धारा 21 जो "किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा" ऐसा कहती है. इस आपतकाल की जानकारी कुछ गीने चुने लोगों को छोड़ खुद इंदिरा के कैबिनेट को भी नहीं थी. इंदिरा ने अपनी कैबिनेट को सुबह 6 बजे आपातकाल के बारे में बताया और किसी ने चु तक नहीं किया. सभी ने आपातकाल को सही ठहराया. और किसी को कुछ पता हो या न हो, दिल्ली पुलिस सब जानती थी. वह यह भी जानती थी कि अभी सत्ता पक्ष की आँखों में कौन सबसे ज्यादा चुभ रहा है. जयप्रकाश को रात में नींद से जगा कर गिरफ्तार कर लिया गया और इंदिरा गाँधी जब सुबह 8 बजे आल इंडिया रेडियो पर आपातकाल की घोषणा करने पहुंची तब तक विपक्ष के सभी बड़े नेता जेल के अंदर बंद किये जा चुके थे. जिसके पद को खुद न्यायलय ने निलंबित कर दिया था उसी इंदिरा ने कांग्रेस छोड़ बाकि सभी राजनैतिक पार्टियों को असंवैधानिक करार कर दिया. 26 जून 1975 से शुरू हुआ ये दमन चक्र जनवरी 1977 तक चलता रहा.
आपातकाल के दौरान संजय गाँधी प्रधानमंत्री माँ का एक ताकतवर बेटा और दबंग नेता के रूप में सामने आए. कुर्सी पर तो इंदिरा ही बैठी थी पर पर हुकूमत थी संजय गाँधी की. और संजय गाँधी ने खुलकर अपनी मनमानी की. जबरन नसबंदी हो, सफाई के नाम पर झुग्गियों पर बुलडोज़र चलवाना विरोध करने पर मरना पीटना और गोली तक चलवा देना और मीडिया को सेंसरशिप में रखना, ना बोलने की आज़ादी न लिखने की. मतलब देश में वही खबर दिखाई जाती जो संजय गाँधी चाहते. माँ बेटे के खिलाफ पुरे देश में नफरत की आग थी. पर इनके दमन की वजह से देश में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था पुरे देश में और इंदिरा ने उसी सन्नाटे को जनता की उनके समर्थन में रजामंदी समझ कर और पहले से ज्यादा प्रचंड बहुमत की लालशा में इंदिरा ने जनवरी लोकसभा चुनाव की घोषणा करवा दिया. इंदिरा को यही लगता था कि 19 महीने के आपातकाल के दौरान जनता इंदिरा के पक्ष में आ चुकी थी. चुनाव हुए और चुनाव में इंदिरा की बुरी तरह से हार हुई. इंदिरा हारी, संजय हारे और 19 महीने जेल में रहने वाले नेताओ को जनता ने अपना हीरो बना लिया.
किसी ने सच ही कहा है कि जनता की यादास्त बहुत कम होती है. 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विजयी हुई और वापस सत्ता में आई. इस चुनाव में संजय गाँधी भी विजयी हुए. परन्तु 1975 का आपातकाल आज भी लोकतंत्र पर एक कालिख के समान है.
जय हिन्द
वंदेमातरम
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