द्वितीय विश्वयुद्ध, जो 1 सितम्बर 1939 से 2 सितम्बर 1945 तक लड़ा गया था, का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर बहुत ही गहरा असर पड़ा था. अगर हम यह कहे कि भारत के स्वतंत्र होने के पीछे का मुख्य कारण द्वितीय विश्व युद्ध ही था, तो यह बात शायद पूरी तरह से गलत भी नहीं होगा. इसी द्वितीय विश्व युद्ध के समय गाँधी ने ब्रिटिश हुकूमत को बिना किसी शर्त सहयोग दिया था. तब जाकर भारतीय सैनिकों ने विश्व युद्ध में भाग लिया था. कांग्रेस के दूसरे नेता बिना किसी शर्त के ब्रिटिश हुकूमत का समर्थन करने के पक्ष में नहीं थे, परंतु गाँधी का किसी ने खास विरोध नहीं किया. इस विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों ने न सिर्फ भाग लिया, बल्कि अपनी अद्भुत वीरता का भी प्रदर्शन किया. परंतु आज बात भारत में गाँधी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में करेंगे, जो 1942 में हुआ था.
पृष्ठभूमि

द्वितीय विश्व युद्ध के समय गाँधी ने ब्रिटिश हुकूमत को बिना किसी शर्त के समर्थन दे दिया था, इसी वजह से भारतीय सैनिक द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से युद्ध किया. यही कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के ढाई वर्षों के बाद भी भारत में देश की स्वतंत्रता के लिए कोई आंदोलन शुरू नहीं किया गया था. द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों की हार होने लगी. तभी खबर आई कि जापान भारत पर आक्रमण करेगा. ऐसे में रूस और अमेरिका ने ब्रिटेन पर दबाव बनाया कि वह भारत के लोगों का विश्वास जीते और अपने साथ खड़े होने को कहे. भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने मार्च 1942 में स्टेफोर्ड क्रिप्स मिशन को भारत में भेजा. जिसका उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के बारे में बात कर उनका समर्थन प्राप्त करना था. क्रिप्स मिशन में भारत को पूर्ण स्वराज देने की बात नहीं कही गई थी. वह भारत के सुरक्षा का अधिकार अपने पास रखना चाहते थे. जैसा अभी हांगकांग और मकाऊ की सुरक्षा का अधिकार चीन के पास है. उसके अलावा गवर्नर जनरल का वीटो का अधिकार भी बनाये रखना चाहते थे. कांग्रेस कभी डोमिनियन स्टेटस अर्थात आधा राज्य मांग रही थी, परंतु भगत सिंह के द्वारा किए गए पूर्ण स्वराज की माँंग ने कांग्रेस को पूर्ण स्वराज की मांग करने को विवश कर दिया था. कांग्रेस ने क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और 14 जुलाई, 1942 को वर्धा में कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने ‘अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव पारित किया. इस प्रस्ताव की सार्वजनिक घोषणा करने से पहले 1 अगस्त को इलाहाबाद (प्रयागराज) में तिलक दिवस मनाया गया. 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के प्रस्ताव को मंजूरी मिली. इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई कि भारत में ब्रिटिश शासन की तत्काल समाप्ति भारत में स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र की स्थापना के लिये अत्यंत आवश्यक हो गई है. इस आंदोलन को अगस्त क्रांति के नाम से भी जाना जाता है.
आंदोलन के दौरान हुई घटनाएँ
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गाँधी ने करो या मरो काली नारा दिया. उस समय अंग्रेजो भारत छोड़ो और करो या मरो लोगों की जुबान पर था. करो या मरो का मतलब था देश की स्वतंत्रता के प्रयत्न में या तो हम स्वतंत्रता को प्राप्त कर लेंगे या कोशिश करते हुए मर जाएंगे.
उसके बाद ब्रिटिश सरकार रात के 12 बजे द्वारा ऑपरेशन जीरो ऑवर चलाया गया. जिसमें रातों रात लगभग सभी बड़े नेताओं को देश के अलग अलग जेल में डाल दिया गया. गाँधी को पुणे के आगा खाँ पैलेस और अन्य नेताओं को अहमदनगर के दुर्ग में रखा गया. कांग्रेस को गैर संवैधानिक संस्था घोषित कर उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. पुरे देश भर में इसके खिलाफ आंदोलन होने लगे. प्रमुख नेताओं के जेल चले जाने बाद नेतृत्व के अभाव में लोगों के बीच से नेतृत्व उभर आया. अरुणा आसफ अली ने 9 अगस्त, 1942 को ग्वालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर आंदोलन को गति दी, तो जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन इत्यादि नेताओं ने भूमिगत रहकर आंदोलन का नेतृत्व किया. उषा मेहता ने अपने साथियों के साथ कांग्रेस रेडियो का प्रसारण किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा पूरे देश में गोलीबारी, लाठीचार्ज और गिरफ्तारियाँ की गई.
ब्रिटिश सरकार की हिंसक कार्रवाई की प्रतिक्रिया में लोगों का गुस्सा भी हिंसक गतिविधियों में बदल गया. लोगों ने सरकारी संपत्तियों पर हमला किया, रेलवे पटरियों को उखाड़ दिया, डाक व तार व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया और वे सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने लगे. बिहार के पटना में सचिवालय पर तिरंगा फहराने के दौरान सात युवा छात्रों ने अपने प्राणों की आहुति दिया. अनेक स्थानों पर पुलिस और जनता के बीच हिंसक संघर्ष भी हुए. ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन से संबंधित समाचारों को प्रकाशित करने पर रोक लगा दी. अनेक समाचार पत्रों ने इन प्रतिबंधों को मानने की जगह अखबार को ही बंद कर दिया.देश के कई भागों में लोगों द्वारा अस्थायी सरकार की स्थापना की गई. पहली अस्थायी सरकार बलिया में चित्तू पाण्डेय के नेतृत्व में बनी थी. वर्ष 1942 के अंत तक लगभग 60,000 लोगों को जेल में डाल दिया गया और कई हज़ार लोग मारे गए जिनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल थे. जय प्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, एस.एम. जोशी, राम मनोहर लोहिया और कई अन्य नेताओं ने लगभग पूरे युद्ध काल के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियों का आयोजन किया. इसी दौरान 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा. इस अकाल ने लगभग तीस लाख लोगों की बलि ली. सरकार ने भूख से मर रहे लोगों को राहत पहुँचाने में कोई रूचि नहीं दिखाई.
इस आंदोलन को स्वतंत्रता के अंतिम चरण का आंदोलन माना जाता है. इसी आंदोलन के समय भारत में पहली बार अस्थायी सरकार का गठन हुआ. इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जनता ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया, जो राष्ट्रीय आंदोलन के परिपक्व चरण को सूचित करता है. इस आंदोलन के दौरान पहली बार राजाओं को जनता की संप्रभुता स्वीकार करने को कहा गया. इस आंदोलन में गांव से लेकर शहर तक के लोगो ने भाग लिया. हालाँकि, भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी व मुस्लिम लीग ने हिस्सा नहीं लिया था.
जय हिंद
वंदेमातरम
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