एनकाउंटर. यह शब्द सामने आते ही दिमाग में अलग अलग तस्वीरें उभर कर सामने आ जाती है. पर शायद आज एनकाउंटर का नाम ले तो विकास दुबे का चित्र ही सामने आ जाता है. कुछ इस एनकाउंटर इस खुश हैं, तो कुछ इसे फर्जी बता कर उत्तर प्रदेश की पुलिस को कटघरे में खड़ा कर रहे है. वहीं कुछ लोग इसे हैदराबाद एनकाउंटर से भी जोड़ कर देख रहे है. उनका ऐसा कहना है कि दोनों ही केस में जनता की भावनाएं हावी थी. इसी वजह से एनकाउंटर को वो गलत ठहरा कर इसे बदले की कार्यवाही बता रहे हैं. वह यह दलील दे रहे है कि पुलिस का काम सिर्फ आरोपी को गिरफ्तार कर अदालत तक ले जाना है. सजा देने का काम अदालत का है. वो अदालत की लेट लतीफी का भी बचाव करते हुए पुलिस को थोड़ा संयम रखने की नसीहत भी दे रहे है. आइए एनकाउंटर से जुड़े कुछ सवालों के जवाब ढूँढने की कोशिश करते है.
एनकाउंटर और उसका इतिहास
एनकाउंटर का एक सीधा सदा अर्थ है, "पुलिस के द्वारा किसी अपराधी को मार गिराना". समय समय पर हर एक राज्य की पुलिस एनकाउंटर करती ही रही है और वह हर एक पार्टी की सरकार के समय होता ही रहा है और आगे भी होता ही रहेगा. इसे रोका नहीं जा सकता. परंतु विपक्ष में बैठे राजनैतिक पार्टी का धर्म है "विरोध करना" तो वह विरोध करेगी ही. एनकाउंटर की शुरुआत करने का श्रेय जाता है, मुंबई पुलिस को, जब उसने मुंबई में हो रहे गैंग वॉर से थर्रा उठी मुंबई को शांत करने का निर्णय लिया और पहला एनकाउंटर किया पहले पढ़े लिखे अंडरवर्ल्ड डॉन मान्या सुर्वे का. फिर यह सिलसिला चलता रहा और ऐसा चला की दाऊद को मुंबई छोड़ कर भागना पड़ा. यह बात अलग है की मुंबई से भागने के बाद दाऊद ने अपना कारोबार फोन चालू रखा.
क्यों होता है एनकाउंटर?
भारत के संविधान में बहुत कमियाँ है. अपराधी इसी कमी का फायदा उठा कर कानून का मजाक बनाने लगते है और अपनी मनमानी करते है. कभी कभी स्थिती इतनी भयावह हो जाती है कि इन अपराधियों में पुलिस और प्रशासन का न डर रह जाता है और न सम्मान. ऐसे में वह अपहरण करना, फिरौती लेना, जबरन वसूली जैसे अपराध बिना किसी भय के करते है और अगर कोई पैसे देने से माना कर दे, तो उसे जान से मार देने में भी परहेज नहीं करते. कभी कभी दो गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के लिए भी खुनी खेल खेलने से भी परहेज नहीं करते. ऐसे में जब सामान्य जन इनके आतंक से त्राहि त्राहि कर उठता है, तब सरकार और पुलिस पर एक साथ सवाल उठता है. लॉ एंड आर्डर को बनाए रखने के लिए और खुद की इज्जत बचाने के लिए एनकाउंटर करने की जरुरत पड़ती है. तब भारतीय न्याय व्यवस्था के जटिल कानूनी प्रक्रिया में पड़े बिना उसका त्वरित न्याय करने का फैसला किया जाता है और उस अपराधी का एनकाउंटर कर दिया जाता है. इस से हमारे समाज को उस अपराधी से तुरंत मुक्ति मिल जाता है. परंतु यह बात जरूर सत्य है कि "एनकाउंटर इसका अस्थायी समाधान हो सकता है, पर यह इसका स्थायी समाधान नहीं है".
इसका स्थायी समाधान क्या है?
किसी भी समस्या का समाधान ढूँढ़ने ने पहले समस्या को सही से समझना पड़ेगा .उसके बिना समाधान नहीं ढूंढ़ पाएँगे. सब पहले तो इस बात को समझने की जरुरत है कि कोई भी अपराधी एनकाउंटर करने की परिस्थिती में तुरंत नहीं पहुंच जाता. वह धीरे धीरे सीढ़ियां चढ़ता हुआ आगे बढ़ता है उसे आगे बढ़ाने में दो कारण मुख्य रूप से जिम्मेदार है. पहला राजनैतिक संरक्षण, दूसरा कुछ भ्रष्ट पुलिस अधिकारी. दोनों के कारणों के बारे में संक्षिप्त में देखेंगे.
राजनैतिक संरक्षण
पुलिस पर आधारित अब तक जितने भी फिल्मों का निर्माण हुआ है, उसमें एक भ्रष्ट नेता जरूर होता है. जो अपने राजनैतिक और गैर कानूनी काम करवाने के लिए गुंडों को पालता है. उनसे अपने काम करवाता है और बदले में उन्हें पुलिस से रक्षा प्रदान करता है. पुलिस से रक्षा प्रदान करने का मतलब है कि "उसके गैंग का कोई भी गिरफ्तार नहीं होगा. पुलिस कभी उस गैंग के आदमियों को गिरफ्तार नहीं करेगी. अगर कोई गिरफ्तार कर भी ले तो वो नेता अपने राजनैतिक ताकत का उपयोग कर उन सबको छुड़ा लेते है. अगर कोई ईमानदार पुलिस अधिकारी आया हो और वह इन नेताओं के दबाब नहीं में नहीं आ रहा हो, तो उस पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते है. बाद में जब इन बाहुबलियों का दबदबा बढ़ जाता है, तो उन सबको वह अपने पार्टी का टिकट देकर चुनाव लड़वाते है और ज्यादातर ऐसे लोग जीत जाते है. जीत का कारण होता है: डर और पैसे लेकर के वोट देना. ऐसे कुछ दबंग बाहुबली नेताओं के नाम है: मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद (यह भगोड़े संसद के तौर पर भी मशहूर है), बृजेश सिंह, सुभाष ठाकुर उर्फ बाबा, हरी शंकर तिवारी, रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, अमरमणि त्रिपाठी, मुन्ना बजरंगी (जेल में हत्या कर दिया गया), शहाबुद्दीन, सूरजभान सिंह, आनंद मोहन, प्रभुनाथ सिंह, राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, सुरेन्द्र यादव, रामा सिंह, अनंत सिंह, सुनील पाण्डेय, राजन तिवारी, मुन्ना शुक्ला, हुलाष पाण्डेय, धूमल सिंह, बोगो सिंह, नीरज कुमार बबलू, रणवीर यादव, रीतलाल यादव, अमरेन्द्र पाण्डेय, बच्चा चौबे इत्यादि. अगर ऐसे बाहुबलियों के नेता बनने का मतलब है "अपराध को कानूनी जामा पहनाना". कुछ पुलिस अधिकारी तो ऐसे बाहुबलियों के राजनैतीक संरक्षण की वजह से भी एनकाउंटर कर देते है.
भ्रष्ट पुलिस अधिकारी
जब रक्षक ही भक्षक के साथ मिल जाये तो तो वहाँ की जनता का क्या होगा? राजनैतिक संरक्षण के अलावा ऐसे बाहुबली पुलिस अधिकारियों को अपने कमाई का कुछ हिस्सा या कोई तय रकम हर महीने वेतन ही तरह पहुँचा देते है, जिसे हप्ता कहते है. इस निश्चित रकम के बदले वो पुलिस अधिकारी उस गैंग के गुंडों को या तो गिरफ्तार नहीं करना, बिना कोई केस बनाये छोड़ देना, गिरफ्तारी के पहले इस उस गैंग को पुलिस की गतिविधियों के बारे जानकारी दे देना और कभी कभी उस गैंग से पैसे लेकर उसके विरोधी गैंग को ही निशाना बनाना इत्यादि जैसी मदद करता है. इस हफ्ते का खुद का एक सिस्टम है. कोई पुलिस वाला इस सिस्टम से बहार नहीं रह सकता. अगर रहता है तो उसे बहुत तकलीफ उठाना पड़ता है. इसी कारण से एक गली का साधारण गुंडा बाहुबली बन जाता है.
अगर किसी गुंडे को राजनैतिक संरक्षण न मिले और पुलिस वाले खुद को बेच कर उस गुंडे के लिए काम करना शुरू न कर दे, तो फिर शायद कभी एनकाउंटर की जरुरत ही न पड़े. क्योंकि फिर किसी अपराधी का कद कभी इतना बड़ा होगा ही नहीं कि उसके एनकाउंटर की जरुरत पड़े. इसके अलावा अपराधियों में कानून का डर बढ़ाने के लिए पुलिस प्रशासन को दुरुस्त करने की जरुरत है. जिसमें पुलिस को आधुनिक हथियार से लेकर पुलिस को चुस्त रखना शामिल है. उसके अलावा हमारी न्यायप्रणाली को भी सुधरने की जरुरत है. ताकि ऐसा कोई अपराधी जिस पर मुक़दमा चल रहा हो, वह न चुनाव लड़ पाए और न ही कभी उसे जमानत या पैरोल मिले. जेल को भी दुरुस्त करने के जरुरत है. ऐसे कई मामले सामने आए है, जिसमें अपराधी जेल में रह कर भी अपना साम्राज्य चला रहे थे और अभी भी चला रहे है. उसमें अतीक अहमद जैसे अपराधी भी है जो जेल में रह कर न सिर्फ अपना गैंग चलाते है, बल्कि अपने शिकार को जेल में मंगवा कर उस से कई जगह हस्ताक्षर करवा कर धमकी देकर छोड़ देते है. यहाँ जेल प्रशासन पर भी सवाल उठते है.
जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक मीडिया और मानवाधिकार वालों को भी किसी अपराधी के एनकाउंटर करने पर पुलिस वालों को घेरना बंद कर देना चाहिए. आप आवाज उठाएं अगर पुलिस एनकाउंटर में किसी निर्दोष को मार दे. किसी बलात्कारी के एनकाउंटर पर आप पुलिस को कटघरे में रख दे, ये कहाँ तक सही है? आप क्या चाहते है कि न्याय की राह में पीड़िता और उसका परिवार निर्भया केस की तरह सिर्फ अदालतों के चक्कर काटते रहे? वास्तव में ऐसी किसी स्थिति में मावधिकार का उलंघन हो रहा है. इस बात पर जरूर सोचना चाहिए. "भय बिनु होइ नहीं प्रीति" अपराधियों के मन में कानून का डर होना ही चाहिए, तभी वह कोई अपराध करने से पहले सोचना शुरू करेंगे.
जय हिन्द
वंदेमातरम
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